Thursday, July 16, 2020

भारत में कोरोना के दो टीके 'कोवैक्सिन' और 'जाइकोव-डी' मानव परीक्षण के दौर में पहुंचे

विनोद वार्ष्णेय 

मौजूदा कोरोनावायरस ने जो अजीब माहौल बनाया है, उसमें बीमारी से ज्यादा सर्वव्यापी है, बीमारी का भय जो संक्रमित पाए जाने पर पृथकवास या अस्पताल जाने की मजबूरी, दवाओं की सफलता-असफलता की अनिश्चितता, ऑक्सीजन और वेंटीलेटर के बावजूद वैश्विक स्तर पर 7-8 प्रतिशत की मृत्यु दर से पैदा हुआ है। इस सबसे बजबजाता सवाल यह पैदा होता है कि क्या इस वायरस का कहर  ऐसे ही चलता रहेगा।  

फिर, पिछले हफ्ते ‘मेसाचुसैट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ के एक अध्ययन ने और डरा दिया कि यदि इस नए वायरस से निपटने की कोई दवा न निकली और न टीका ईजाद हुआ तो अगले साल मई में  दुनिया में सबसे अधिक कोरोना संक्रमण के मामले भारत में सामने आ रहे होंगे--हर दिन 2 लाख 87 हज़ार और तब तक विश्व में कोई 25 करोड़ लोग संक्रमण के दौर से गुजर चुके होंगे। यही नहीं, कोविड-19 से 18 लाख लोगों की मौत हो चुकी होगी। कौन इसे 'फेक न्यूज़' कहकर खारिज नहीं करना चाहेगा ! पर विश्व भर में जन-स्वास्थ्य से सरोकर रखने वाले लोगों ने इसे चुनौती के रूप में लिया है।  

यह दवा विकसित करने, और उससे कहीं ज्यादा, टीका विकसित करने के प्रयासों में परलक्षित है। ताजा जानकारी के अनुसार विश्व में अब तक पांच विभिन्न प्रणालियों के आधार पर 155 टीके बन चुके हैं जिनमें से 22 मानव परीक्षण के दौर में उतर चुके हैं। हर हफ्ते यह आंकड़ा बढ़ ही रहा है। संकल्पना के दौर से उठकर टीके के अभिकल्पित होने और प्रयोगशलाओं से गुजरते हुए मानव-परीक्षण के दौर तक आने में वैज्ञानिक ज्ञान, कौशल और विदग्धता की अहम भूमिका होती है। लेकिन वास्तव में जो टीका बना, वह काम करेगा या नहीं, कितने दिन के लिए प्रतिरक्षण देगा और कहीं यह कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाएगा, इस सबका पता तो मानव परीक्षण से ही चलता है !  

इतिहास गवाह है कि बहुत कम टीके मानव परीक्षण में सफल हो पाते हैं।  वैक्सीन अलायन्स 'गैवी' के मुख्यकार्यकारी अधिकारी सैट बर्कले के अनुसार ज्यादातर टीके ‘फेल’ही होते हैं।  केवल 15-20 प्रतिशत टीके ही उस दौर में पहुंचते हैं कि उसे लोगों को दिया जा सके। चक्कर यह है कि हर नए टीके को आम इस्तेमाल के लिए जारी करने से पहले उसके तीन मानव परीक्षण जरूरी होते हैं जिनमें टीके को कई मानदंडों पर खरा उतरना होता है। सबसे अहम होता है कि क्या यह ‘सेफ’ है यानी यह शरीर में कोई नई स्वास्थ्य-समस्या तो पैदा नहीं करेगा ? दवाओं की बात अलग है, कोई नई दवा विकसित होती है तो वह बीमार व्यक्ति को ही दी जाती है, लेकिन टीका तो स्वस्थ व्यक्ति को दिया जाता है। खराब टीके के जरिए स्वस्थ व्यक्तियों को कोई नई स्वास्थ्य समस्या सौंप देना कोई भी उचित नहीं मानेगा। इसलिए परीक्षण के जरिए टीके का निरापद सिद्ध होना अनिवार्य माना जाता है।

टीके का दूसरा मानक होता है कि क्या वह सचमुच शरीर में रोग- प्रतिरक्षण पैदा करेगा। इसे मापने का जैव वैज्ञानिकों का तरीका है, यह देखना कि टीका लगाने के बाद वे प्रोटीन (एंटीबाडीज) पैदा हुए या नहीं जो वायरस का खात्मा करते हैं। बेशक, मानव-परीक्षण से पूर्व परखनली में कोशिकाओं पर और परीक्षण पशुओं (चूहे आदि) पर इसकी पुष्टि कर ली जाती है। पर जेनेटिक स्तर पर मानव बहुत भिन्न और विविध होता है, इसलिए यह सुनिश्चित करना बहुत जरूरी होता है कि क्या सचमुच में टीके का असर मानवों में भी वैसा ही होगा, जैसा कि पशुओं या कोशिकाओं में पाया गया था। हर व्यक्ति पर टीके का असर एक जैसा नहीं हो सकता क्योंकि आयु, लिंग, स्वास्थ्य का स्तर, पहले से चली आ रही बीमारियां, पहले लग चुके टीकों का असर जैसी अनेक भिन्नताएं टीके की प्रभावशीलता को प्रभावित करती हैं। टीके के मामले में मात्रा (डोज) और वह कब-कब कितनी बार दिया जाना है, यानी समयक्रम तय करने का भी सवाल होता है जिसे मानव-परीक्षण के जरिए ही तय किया जाता है। 

तीसरा मानक होता है, यह जानना कि टीके से प्रतिरक्षण कितने समय बाद पैदा हुआ और वह कितनी अवधि तक बना रहेगा। इन सबके अलावा परीक्षण के दौरान एक मसला 'क्रॉस-रिएक्टिविटी' का होता है जिसे आम भाषा में एलर्जी पैदा हो जाना भी कह सकते हैं। ‘क्रॉस-रिएक्टिविटी' की वजह से पैदा हुई रोग-प्रतिरोधिता वास्तविक लक्षित वायरस की जगह किसी मिलते-जुलते अन्य लक्ष्य पर ज्यादा प्रहार करती है जिससे टीके का असली मकसद ही ख़त्म हो जाता है। यही वजह है कि टीका विकास का काम काफी जटिल और समयसाध्य माना जाता है। इसमें कोई भी जल्दबाजी और लापरवाही अक्षम्य होनी चाहिए।

 'कोवैक्सिन' कोरोना की भारतीय नस्ल पर आधारित 

भारत का टीका उत्पादन के क्षेत्र में ख़ासा नाम है। देश में कई बीमारियों के टीकों के विकास पर काम चल रहा है। भारत में कोरोना वायरस के दस्तक देने के फ़ौरन बाद कोविड-19 का टीका विकसित करने का काम छह अलग-अलग संस्थानों-कम्पनियों ने शुरू कर दिया था जिनमें से दो टीकों--'कोवैक्सिन' और 'ज़ाइकोव-डी'--के मानव परीक्षण की अनुमति मिल चुकी है। इन दोनों ही कंपनियों को टीके के उत्पादन और विकास का ख़ासा अनुभव है। 'कोवैक्सिन' हैदराबाद की निजी क्षेत्र की कंपनी 'भारत बायोटेक' और पुणे स्थित सरकारी संस्थान ' नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी' ने मिलकर बनाया है। वायरस नए परिवेश में पहुँचने पर अक्सर कुछ बदल जाते हैं। इसलिए कोई जरूरी नहीं कि 10 जनवरी को जो कोरोनावायरस वुहान (चीन) में मिला था, हू-ब-हू वही इस समय भारत में फ़ैल रहा हो। पर नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी ने जो वायरस पृथक कर भारत बायोटेक को दिया है, वह एक भारतीय से निकाला गया है। इसका अर्थ है, इसके आधार पर विकसित टीका भारत में कहीं अधिक कामयाब होगा। 

'कोवैक्सिन'को निष्क्रिय वायरस के आधार पर बनाया गया है जो काफी पुरानी, सुरक्षित और प्रमाणित टेक्नोलॉजी मानी जाती है। जानकार लोगों के मुताबिक़ टीके में निष्क्रिय रैबीज वायरस में करोनावायरस की सतह से जुड़ी एक प्रोटीन डाली गई है जिससे शरीर की प्रतिरक्षण प्रणाली सक्रिय हो जाएगी। चूंकि भारत बायोटेक के पास रेबीज का टीका बनाने की बड़ी क्षमता है, इसलिए माना जा रहा है कि मानव परीक्षण में सफल होने के बाद इस टीके के बड़े पैमाने पर उत्पादन में विलम्ब नहीं होगा। 

'जाइडस कैडिला' अहमदाबाद स्थित निजी कंपनी है जिसके दो टीका विकास केंद्र हैं जिनमें से एक इटली में है। 'जाइडस कैडिला' चार तरह के टीके बनाने पर काम कर रहा था जिनमें से 'प्लाज्मिड-डीएनए' आधारित टीके को पशु-परीक्षण में काफी अच्छे नतीजे देने वाला पाया गया। प्लाज्मिड छोटा-सा डीएनए अणु होता है जो क्रोमोज़ोम के अतिरिक्त होता है। इसमें कुछ ही जीन होते हैं। कृत्रिम रूप से बनाए प्लाज्मिड का इस्तेमाल वाहक (vector) के रूप में किया जा सकता है। टीके के लिए प्लाज्मिड में कोरोना वायरस के भी कुछ चुनिंदा जीन डाल दिए जाते हैं। 

सेंट्रल ड्रग्स स्टैण्डर्ड कंट्रौल आर्गेनाईजेशन ने तीन जुलाई को इस जेनेटिक टीके के पहले और दूसरे चरण के मानव-परीक्षण की अनुमति दी थी। कंपनी की योजना है कि पहले चरण के बाद दूसरे चरण का परीक्षण तुरंत शुरू कर दिया जाए जिससे तीन महीने में दोनों परीक्षण पूरे हो जाएं। कयास लगाए जा रहे हैं कि यदि देश में कोरोना संक्रमण का प्रसार थमता नज़र नहीं आया तो आपातकाल मानकर भारत सरकार तीसरे चरण का मानव-परीक्षण किए बिना भी टीके के उत्पादन और इस्तेमाल की अनुमति दे सकती है। इस बात का अंदाजा इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के उस फरमान से भी मिलता है जिसमें कहा गया कि जनता के लिए टीका 15 अगस्त तक बन जाना चाहिए। बहरहाल, देश के अधिकाँश वैज्ञानिकों और संस्थानों ने इस समय सीमा को अव्यवहारिक और बेहूदा बताया। 

दस जुलाई को सांसद जयराम रमेश की अध्यक्षता में हुई विज्ञान सम्बन्धी संसदीय स्थायी समिति की बैठक में विज्ञान प्रौद्योगिकी विभाग, कौंसिल ऑफ़ साइंस एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च, जैव प्रौद्योगिकी विभाग के अधिकारियों के अलावा भारत सरकार के प्रधान विज्ञान सलाहकार के. विजय राघवन ने बताया कि टीका अगले साल के प्रारम्भ तक ही बाज़ार में आ सकता है (15 अगस्त तक नहीं)।  बैठक में यह भी जानकारी दी गई कि यह जरूरी नहीं कि यह टीका स्वदेशी ही हो। समय की जरूरत देखते हुए अन्यत्र विकसित हो रहे टीकों में से भी किसी का देश में उत्पादन शुरू हो सकता है।  

उल्लेखनीय है कि कम से कम तीन टीके--अमेरिकी कंपनी मोडर्ना का 'एम-आरएनए-1273', ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और स्वीडिश-ब्रिटिश कंपनी एस्ट्राजेनेका का 'ए जेड डी-12222' और चीनी कंपनी  सिनोवैक का 'कोरोनावैक'-- इन दिनों मानव-परीक्षण के तीसरे चरण में चल रहे हैं। इनके आलावा भी तीन और टीके इस दौर में प्रवेश करने वाले हैं। गौरतलब है कि तीसरे चरण की कामयाबी के बाद ही, जिसमें छह महीने लगते हैं, टीका-उत्पादन की अनुमति दी जाती है। आपातस्थिति की बात अलग है।  

(यह लेख हिंदी पाक्षिक 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' के 16 अप्रैल, 2020 के अंक में प्रकाशित हो चुका है)

Tuesday, July 14, 2020

45 वर्ष चले जीवट-भरे विज्ञान-कर्म का रोचक इतिहास

विनोद वार्ष्णेय 

अरुण कुमार असफल की नई पुस्तक 'महा-अभियान की महागाथा--78 डिग्री" में उस समय की दास्तान है जब वैज्ञानिकों में यह जानने की प्रबल जिज्ञासा  थी कि आखिर हमारी पृथ्वी का आकार कैसा है, इसकी वास्तविक माप कितनी है। आसमान में तारों की स्थिति के अवलोकन के आधार पर  कुछ सिद्धांत विकसित हुए थे जिनसे कुछ गणनाएं और दावे पेश किए जा रहे थे। लेकिन इनकी पुष्टि के कोई साधन न थे। 

आज स्थिति अलग है: आकाश से अवलोकन करने वाले और चप्पे-चप्पे की फोटो लेकर पृथ्वी पर भेजने 
में सक्षम उपग्रह हैं । हाल में भारत ने अंतरिक्ष में कार्टोसैट-3 उपग्रह प्रक्षेपित  किया जो 605 किलोमीटर की ऊँचाई से पृथ्वी के दृष्टि वर्णक्रम के सभी रंगों की स्पष्ट तस्वीरें भेज रहा है। इन डिजिटल चित्रों से पृथ्वी के किसी भी इलाके की लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई या गहराई नापने के साथ साथ यह भी पता लग जाता है कि कहां रेगिस्तान है और कहाँ जलप्लावन या दलदल, सूखी मिट्टी, चट्टान, ढलान, चढ़ाई, जंगल, सड़क, भवन आदि। इसमें एक ऐसा  कैमरा भी है जो बता सकता है कि पृथ्वी की सतह पर कहाँ कितना तापमान है। 

लेकिन इस पुस्तक में वर्णित ज़माना वह है, जब पृथ्वी की सतह पर दो बिंदुओं के बीच की दूरी जंजीर से नापी जाती थी। मापन सम्बन्धी यांत्रिकी, खुर्दबीन, दूरबीन आदि के विकास के वे शुरूआती दिन थे। ये चीजें उस समय के हिसाब से महान उपलब्धियां थीं और कुछ ही देश उन्हें बना पाते थे। इन उपकरणों के जरिए पूरी पृथ्वी को सही-सही नापना और उसका सटीक मानचित्र बनाने का उपक्रम सचमुच में मानवीय हौसले, परिश्रम, धैर्य और कुशलता की दरकार रखता था। 

भू-सर्वेक्षण की प्रक्रिया में पूरी पृथ्वी को काल्पनिक देशांतर और अक्षांश रेखाओं में विभाजित कर लिया जाता है। उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव को मिलाने वाली 360 देशांतर रेखाएं  हैं जिनका नामकरण शून्य से लेकर 360 डिग्री तक किया गया है। लेखक  ने जिस महागाथा के बारे में लिखा है, वह विशेषकर 2,500 किलोमीटर लम्बी  '78 डिग्री देशांतर रेखा' के मापन से जुड़ी है जो विश्व का इस तरह का सबसे बड़ा वैज्ञानिक अभियान था। ये काल्पनिक रेखाएं गोल पृथ्वी पर हैं इसलिए गोलाकार होती हैं इसलिए इसका उल्लेख महत्तम चाप (या महाचाप) के रूप में भी किया जाता है। लेखक बताता है कि भारत में चले इस अभियान में जितनी जानें गईं, उतनी ही भारत में उस दौरान विभिन्न युद्धों में गई होंगी। 

इन युद्धों, योद्धाओं के पराक्रम और रणकौशल, राजाओं-नबावों की हार-जीतों और नए साम्राज्य की 
स्थापनाओं के इतिहास पर सैंकड़ों पुस्तकें हैं लेकिन मानवीय वैज्ञानिक जिज्ञासा के वशीभूत चले उक्त 
महा-अभियान पर ढूढ़ने पर भी पर हिंदी में कुछ ख़ास नहीं मिलता। संभवतः इस विषय पर हिंदी में  
यह अपने किस्म की पहली पुस्तक है।  

पुस्तक के लेखक 'भारतीय सर्वेक्षण विभाग' में कार्यरत हैं और इस नाते सर्वेक्षण और मानचित्रण के विज्ञान, उससे जुड़ी तकनीकी प्रक्रियाओं और उसके इतिहास से बखूबी वाकिफ हैं जिससे पुस्तक विभिन्न तकनीकी विवरण के मामले में विश्वसनीय है। वे साहित्य प्रेमी भी हैं और कथा साहित्य लिखते रहे हैं। शायद यही वजह है कि पुस्तक में कथा तत्व प्रचुरता से है। लेकिन पुस्तक पृथ्वी की सतह की तरह है, कहीं सरल, सपाट, मनोरम तो कहीं बीहड़। बीहड़ स्थलों पर पाठक को कथ्य समझने के लिए दिमाग पर जोर लगाना पड़ेगा और रसास्वादन में कुछ मुश्किल होगी। 

पर विज्ञान की किताब का रसास्वादन पाठक के विषय सम्बन्धी ज्ञान से भी जुड़ा होता है। जो पाठक भूगोल या भू-सर्वेक्षण के कार्य या सिद्धांत से अपरिचित हैं, उनके लिए महत्तम चाप, अठहत्तर डिग्री देशांतर रेखा, अठारह डिग्री अक्षांश, त्रिकोणीय श्रंखला, त्रिकोण की आधार रेखा और समूचे भू-क्षेत्र को त्रिकोणों में बांटने की अवधारणा आदि चीजें अबूझ बनी रहेंगी हालांकि लेखक ने  दावा किया है कि 'तकनीकी पदों और क्रियाओं का सरलीकरण किया गया है जिससे साहित्य के पाठकों को यह कहानी सहज लगे'। 

पुस्तक में जहाँ-जहाँ तकनीकी या सैद्धांतिक विवरण आते हैं, वहां-वहां लगता है कि सरपट दौड़ती गाड़ी कहीं ऊबड़खाबड़ इलाके में घुस आई है। अन्यथा तो पुस्तक अक्सर रोचक उपन्यास जैसा आनंद देती है जिसमें हीरो हैं विश्व-प्रसिद्ध विलियम लैम्बटन और जॉर्ज एवरेस्ट जो अद्भुत जीवट, लगन, कभी हार न मानने वाली जिद के धनी हैं। उनका किरदार बहुत अच्छे ढंग से पेश किया गया है। उन दिनों चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में बीमारियों, महामारियों से लड़ते हुए, बाघ, शेर, चीते आदि वन्य पशुओं के खतरों के बीच असह्य मौसम में जंगल, दलदल, रेगिस्तान,पहाड़, वेगवती नदी व अनेक तरह के दुर्गम इलाकों के बीच से गुजर उचित स्थल तक तक पहुंच और वहां भू-सर्वेक्षण के लिए शिविर की स्थापना कर महीनों डटे रहने के वृतांत आज के आरामतलब जीवन जीने वालों के तो रोंगटे खड़े कर देगा। 

पुस्तक में भू-सर्वेक्षण की जरूरत, लम्बे समय तक चलने वाले इस अभियान की जटिलताओं, इससे जुड़ी जिज्ञासाओं के वर्णन के जरिए उन बुनियादी सवालों की भी जानकारी दी गई है जो उन दिनों वैज्ञानिकों को विस्मित करते थे और अपने आसपास की प्राकृतिक भौगोलिक स्थितियों और ब्रह्मांडीय पिंडों की असलियत को समझना चाहते थे। उनमें एक बड़ा सवाल यह था कि पृथ्वी का आकार कैसा है--चपटा, गोल, दीर्घवृत्तीय, चतुर्भुजीय या अर्धगोलाकार। यह जानने के लिए नई-नई युक्तियाँ और उपकरण सोचे जा रहे थे, बनाए जा रहे थे। भौगोलिक दूरियां मापी जा रहीं थीं, उन्हें ज्यामितीय कोण (डिग्री) की समझ से जोड़ा जा रहा था। पुस्तक उस समय के अंकगणित, ज्यामिति, दर्शन और खगोल सम्बन्धी परिकल्पनाओं का ख़ासा ऐतिहासिक बोध करा देती है।     

इसमें ऐसे विवरण भी बहुत हैं जो उस समय के भारतीय समाज और ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासनिक तरीकों को समझने में मदद करते हैं। प्रस्तुत भू-वैज्ञानिक अभियान उस समय का है, जब ईस्ट इंडिया कंपनी कोई व्यापारिक प्रतिष्ठान मात्र नहीं रह गई थी। अँगरेज़ भारत की आंतरिक कूटनीति में दखल देने लगे थे और पूरे भारत में अपना साम्राज्य फ़ैलाने के लिए सैनिक व्यूहरचना और अपेक्षाकृत सुगम मार्गों के लिए भू-सर्वेक्षण को बहुत ही उपयोगी चीज मानते थे। लेखक ने बताया है कि जो सैन्य कर्मचारी गणित और खगोलशास्त्र का थोड़ा बहुत भी ज्ञान रखते थे, वे रास्ते भर नाप-पैमाइश और खगोलीय प्रेक्षण की मदद से रास्ते का कच्चा खाका तैयार करते जाते थे। दिशा के सही ज्ञान के लिए खगोलीय प्रेक्षण जरूरी होता था और उसके लिए वेधशालाएं जरूरी थीं। पर उस समय सारी वेधशालाएं स्थानीय शासकों के कब्जे में थीं इसलिए अंग्रेज  जगह-जगह अपनी निजी वेधशालाएं बनवा रहे थे। हिन्दुओं को गणित और खगोलशास्त्र में महारत हासिल थी, इसलिए उनकी पांडुलिपियां भी खोजी जा रही थीं। 

पुस्तक का पहला हीरो विलियम लैम्बटन ब्रिटिश सेना में था और भारत आने से पहले अमेरिका में युद्ध में भाग ले चुका था। 1796 में वह आर्थर वेलेजली की 33वीं बटालियन में  लेफ्टिनेंट बनकर भारत आया। पर उसकी मूल दिलचस्पी भू-विज्ञान में थी। उसने प्रसिद्ध गणितज्ञ से गणित और खगोलशास्त्र की शिक्षा ली थी। भारत में उसने अपना वैज्ञानिक कार्य चलाया और प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका 'एशियाटिक रिसर्च' में शोध लेख भी प्रकाशित करवाए। 

4 अप्रैल 1799 को जब टीपू सुल्तान की फ़ौज पर धावा बोलने के लिए ब्रिटिश सेना भेजी गई तो वह असैनिक अधिकारी के रूप में साथ गया। उस दौरान उसने कमांडर की भयंकर गलती पकड़ी। उसने आकाश में सप्तर्षि मंडल की स्थिति देखकर पता लगाया था कि कमांडर सैनिक टुकड़ी को गलत दिशा में भेज रहा है। पहले उसकी सलाह की अवहेलना की गई पर कुछ ही दिनों में सबको गलती साफ़ नज़र आने लगी तो फिर टुकड़ी को उसके बताए मार्ग पर भेजा गया। इससे उसके खगोलीय ज्ञान का डंका बज गया और सेनापति आर्थर वेलेज़ली उसकी प्रतिभा और दक्षता का मुरीद हो गया। उसके समक्ष प्रस्ताव रखा गया कि वह समूचे मैसूर, हैदराबाद, मराठा सहित पूरे प्रायद्वीप का ऐसा मानचित्र बनाए जो सटीक हो, वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित हो। उन दिनों पृथ्वी के आकार जानने सम्बन्धी जो कार्य यूरोप में चल रहे थे, उनसे वह पूरी तरह अवगत था। उक्त ब्रिटिश प्रस्ताव में उसे अपने लिए अवसर नज़र आया कि वह इसके जरिए भूविज्ञान के क्षेत्र में कुछ नया कर पाएगा। उन दिनों वैज्ञानिक इस रहस्यपूर्ण उलझन से जूझ रहे थे कि कुछ जगहों पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण मान असामान्य रूप से अलग क्यों निकल कर आ रहे हैं। लैम्बटन को लगा कि इस बात की पुष्टि के लिए वह बिलकुल सही जगह पर है और अगर उस क्षेत्र की सही-सही माप की जाए तो गुरुत्वाकर्षण के विविध प्रयोगों से जो निष्कर्ष सामने आ रहे थे, वह उनकी पुष्टि कर पाएगा। तो, उसने प्रस्ताव तैयार किया कि कन्याकुमारी और हिमालय की गोद में बसे मसूरी से गुजरने वाली 1,600 मील (2,500 किलोमीटर) लम्बी 78 डिग्री देशांतर रेखा को नापा जाए। 

सरकार का सोचना था कि इसकी मदद से जो मानचित्र बनेंगे, वे अंग्रेजों को भारत पर राजनैतिक प्रभुत्व जमाने के साथ-साथ यहां की प्रचुर भौतिक सम्पदा के दोहन का काम आसान करेंगे। उसकी प्रोजेक्ट फटाफट मंजूर हो गई। उसके बाद पुस्तक में इंग्लैंड से मापनयंत्रों को हासिल करने के प्रयासों की कहानी चलती है जिसमें बताया जाता है कि उसका प्रिय आधा टन भारी और आदमकद से भी बड़ा यंत्र 'थियोडोलाइट' अंततः सितम्बर 1802 में कैसे जैसे-तैसे मद्रास पहुँचा।     

ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के लिए भू-सर्वेक्षण की उपयोगिता प्रमुखतः भूमि पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करने, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तथा परिवहन के लिए आधार संरचना बिछाने की जरूरत से जुड़ी थी। इसके लिए दूरियों, दिशाओं, सीमाओं, क्षेत्रफलों का जानना आवश्यक था। पहले यह सब जानकारियां स्थानीय लोगों के स्मृति पटल पर अंकित रहती थीं पर जब यह सब मानचित्र के रूप में कागज़ पर अंकित होने लगी तो जानकारियां समेटने और उसके विश्लेषण की क्षमता और विश्वसनीयता बहुत बढ़ गई। 

इतिहास है कि पृथ्वी पर विभिन्न भू-भागों के आकार यानी लम्बाई-चौड़ाई-ऊंचाई-वक्रता आदि सम्बन्धी गणित की शाखा 'भू-गणित' का आधुनिक युग 1700 में शुरू हुआ। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नए नए किस्म के यन्त्र भी बनने लगे। सर्वेक्षण की त्रिकोणीय विधि विशेष रूप से प्रचलन में आई। पूरे भारत को वैज्ञानिक परिशुद्धता के साथ मापने के लिए लैम्बटन ने इसी विधि के आधार पर 'ग्रेट ट्रिगोनोमेट्रिकल सर्वे' की योजना बनाई जिसके तहत पूरे भारत को त्रिकोणों में बाँटना और उनका मापन किया जाना था।  इसके लिए त्रिभुज की आधार रेखा को बहुत सावधानी से नापना होता, बाकी दो भुजाओं की माप तो कोणीय माप से भी निकाली जा सकती थी। इसके अलावा रैखिक दूरी और कोणीय दूरी, दोनों तरह के माप लेने होते थे। कई बार सही जगह की पहचान करना बहुत मुसीबतज़दा होता। और सबसे बड़ी बात, लैम्बटन का जोर मापन की शुद्धता पर बहुत होता जिसके लिए उसने अनेक विधियां ईजाद कीं। फिर भी कई बार तो वह महीनों से चली आ रही पूरी-की-पूरी कष्टकारी माप-श्रृंखला फिर से दोहराता।     

लैम्बटन के सर्वेक्षण की उत्कृष्टता की वैज्ञानिक समुदाय में प्रशंसा हो रही थी। 1817 में उसे रॉयल सोसाइटी का सदस्य बन गया। उधर, ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ अधिकारी गवर्नर जनरल के कान भरा करते कि '78 डिग्री देशांतर' के चक्कर में निज़ाम के क्षेत्र का नक्शा तैयार करने में बहुत विलम्ब हो रहा है। टीपू सुल्तान के मारे जाने के बाद सम्पूर्ण निज़ाम और मैसूर क्षेत्र जिस तरह अंग्रेजों को मिल गया, उसी तरह 6 अप्रैल 1819 को सम्पूर्ण मराठा क्षेत्र पर भी अंग्रेजों का आधिपत्य हो गया और लंदन सरकार के लिए सभी जगह के सटीक मानचित्रों की जरूरत और बढ़ गई ताकि हुक्मरानों को यहाँ के चप्पे-चप्पे की जानकारी हो सके।    

पर यह काम चटपट कैसे हो सकता था? किसी तय किए गए क्षेत्र में त्रिकोण की  एक भुजा, आधार-रेखा को मापना ही बहुत लम्बा कार्य होता था। अकेले इसमें ही डेढ़ दो माह का समय लग जाता। इसके बाद रेखा के दोनों सिरों पर खगोलीय प्रेक्षण करना होता जिससे रेखा की सही-सही दिशा निर्धारित की जा सके।  यह काम कई रातों में संपन्न हो पाता। खगोलीय प्रेक्षण जटिल कार्य होता था जिसे गणित और खगोलशास्त्र जानने वाला व्यक्ति ही सही-सही कर सकता था। इसमें गलती का अर्थ होता दिशा में भटकाव। इसलिए यह काम लैम्बटन  खुद करता। इसके लिए उसे कई-कई रातें जागकर बितानी पड़तीं। भारत के कठोर मौसम में निरंतर बिना उचित विश्राम लिए मेहनत का नतीजा यह हुआ कि लैम्बटन को तपेदिक हो गई। पर काम का जुनून इतना कि वह फिर भी अनवरत काम करता रहा। सरकार की इतनी दयादृष्टि जरूर रही कि उसकी शोधपरक रुचि देखते हुए उसे कई अन्य चीजों से मुक्त कर केवल 'ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे' का चीफ बना दिया गया था।

उसे इंग्लैंड जाकर चिकित्सा की सलाह दी गई। वह दो दशक से स्वदेश से बाहर रह चुका था। इंग्लैंड में वैज्ञानिकों से मिलना भी चाहता था। पर भारत का काम वह ऐसे ही छोड़कर नहीं जा सकता था। वह जाने से पहले एक ऐसा सुयोग्य सहायक चाहता था जो उसके पीछे उसके गुणवत्ता के मानदंडों के अनुरूप काम कर सके। 25 अक्टूबर, 1817 को जॉर्ज एवरेस्ट के रूप में उसे सत्रह वर्षीय गणित और खगोलशात्र समझने वाला सहायक मिला। 

एवरेस्ट गुणवत्ता के मामले में लैम्बटन की प्रतिलिपि निकला। यही वजह है कि वह '78 डिग्री की महागाथा' का दूसरा नायक है। उसका जन्म ग्रीनिच में हुआ था जहां पर विश्व की सबसे आधुनिक वेधशाला थी और जहां का बच्चा-बच्चा अक्षांश और देशांतर रेखा के मायने समझता था।   

लैम्बटन कुछ स्वस्थ होकर इंग्लैंड से लौटा। पर उन दिनों तपेदिक का कोई पक्का इलाज न था। तपेदिक होते हुए भी वह काम के सिलसिले में लम्बी-लम्बी यात्राएं करता रहा। अंततः 20 जनवरी, 1823 की रात वर्धा और नागपुर के बीच हिंगनघाट गांव में लगे शिविर के अपने तम्बू में उसने प्राण त्याग दिए। सबने माना कि वह भारत के इस भू-भाग में पृथ्वी का आकार नापने के काम में जी-जान से लगा रहा। उसने कभी नगरीय सुख सुविधाएं नहीं भोगीं, जंगल-जंगल पर्वत-पर्वत घूमना ही जैसे उसकी मनमांगी किस्मत थी। खास बात यह कि इस काम के लिए उसे न तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने आदेश दिया था और न ही इंग्लैंड सरकार ने। इसकी योजना उसने खुद बनाई थी और सरकार से मंजूर कराई थी। 

लैम्बटन की मृत्यु के बाद 'ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे' विभाग का योग्यता की दृष्टि से असली उत्तराधिकारी जॉर्ज एवरेस्ट ही हो सकता था और वही उसका मुखिया बनाया गया। उसके काम का लेखक ने विवरण इस तरह दिया है: एवरेस्ट के साथ स्थानीय ग्रामीण लोग भी होते थे। वे इस बात से चकित थे कि आसपास के शेर-भालू-चीते कभी उसके शिविर के पास नहीं फटकते। अन्धविश्वास का आलम यह कि वे मानने लगे कि एवरेस्ट के पास जरूर कोई दैवी शक्ति है। ये लोग अनपढ़ थे, उनमें किसी वैज्ञानिक सोच का होना तो बहुत दूर की बात थी। एवरेस्ट जब दूरबीन लगाकर दूर पहाड़ पर मशाल को ढूंढ़ता या खगोलीय प्रेक्षण के दौरान आकाश में तारों को ढूंढ़ता तो आसपास के मजदूर सोचते कि वह स्वर्ग में बैठे देवी-देवताओं से संपर्क साधने की कोशिश कर रहा है। घनी दाढ़ी-मूंछों की वजह से वह वैसे ही संन्यासी जैसा लगता था। खबर आसपास के गावों तक में फ़ैल जाती कि कोई साधू जंगल में साधना के लिए आया हुआ है और आसपास के दीन-दुखियारी और बीमार वहां आकर भीड़ लगा लेते और उसकी थिओडोलाइट मशीन के आगे नतमस्तक हो जाते और एवरेस्ट से कृपा की आशा में उसके समक्ष लंबलोट हो जाते।   

जॉर्ज एवरेस्ट ने कई नव प्रवर्तन किए। उनमें एक था दिन में रंगीन झंडों की जगह रात में मशाल आदि से प्रेक्षण करना  जिससे काम की गति बढ़ गई। रात में वह प्रकाश अपवर्तन का भी लाभ लेता जिससे यदि दिन में किसी पहाड़ पर लगा झंडा या संकेत किसी बाधा की वजह से दिखाई न देता, तो प्रकाश अपवर्तन की वजह से बाधा के बावजूद वह नीली रोशनी दिखाई पड़ जाती थी। प्रशिक्षित सिग्नलमैन नीली बत्ती लिए पहाड़ पर बैठे रहते और एवरेस्ट थिओडोलाइट की दूरबीन से पाठ्यांक लेता। नीली बत्तियों का इस्तेमाल उसके दिमाग की उपज थी।  

एवरेस्ट के समय में शिविर में 400-500 लोग होते और हैजा मलेरिया जैसी बीमारी भी फैलती रहतीं। यह 
काम ऐसा था कि स्वास्थ्य पर ध्यान देना संभव नहीं था। बुखार के दौर आते रहते और तब उसे लगता 
कि चिकित्सकों की राय मान कर उसे कुछ समय के लिए काम से हट जाना चाहिए। पर उसने ऐसा नहीं किया। उसका स्वास्थ्य बिगड़ता गया। अंततः चिकित्सा के लिए उसे भी वापस लन्दन जाना पड़ा। 


इंग्लैंड में उस समय औद्योगिक विकास का उत्कर्ष काल चल रहा था। खगोलीय प्रेक्षण और सर्वेक्षण के लिए नए-नए यंत्र बन रहे थे और पूरे यूरोप में इस्तेमाल हो रहे थे। नए सिद्धांत भी आ रहे थे। मसलन पृथ्वी पर पहाड़ जैसी सघन द्रव्यमान वाली भौगोलिक संरचनाएं तो दिखाई देती हैं लेकिन पृथ्वी के नीचे भी इस किस्म की सघन द्रव्यमान वाली सरंचनाएं हो सकती हैं, जो दिखाई नहीं देतीं। इससे भी गुरुत्वीय बल कहीं अधिक, कहीं कम होने की सम्भावना रहती है। भारत में इस बल को मापने का उस समय न कोई यन्त्र था और न  सर्वेक्षण में इस बल के इस्तेमाल की कोई कोशिश हुई थी। लंदन जाकर जॉर्ज एवरेस्ट त्रिकोणीय प्रेक्षण के साथ-साथ गुरुत्वीय प्रेक्षण का हिमायती हो गया।  

एवरेस्ट लगभग पांच साल बाद 6 अक्टूबर, 1930 को भारत लौटा। अब वह न केवल
‘ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे’का मुखिया था बल्कि उसे ‘भारतीय सर्वेक्षण विभाग’का महासर्वेक्षक भी बना दिया गया था। लैम्बटन की तरह एवरेस्ट का जोर भी गुणवत्ता पर होता। 'एक बार किसी गणना में गलती पकड़ में आ जाती तो वह परेशान हो जाता।' उधर, सरकार का कहना था कि मानचित्र जल्दी बनाए जाएं बेशक उनकी गुणवत्ता कुछ कम हो। सरकार को पूरे अवध और बंगाल क्षेत्र के मानचित्र पाने की जल्दी 
थी। सरकार का यह रुख देख उसने वह काम अन्य के ऊपर छोड़ दिया और खुद पूरी तरह 78 डिग्री देशांतर रेखा (महत्तम चाप) पर लग गया। उसे काम में तेजी लाने के लिए अच्छे संगणक की जरूरत थी। 
इस जरूरत को एक भारतीय हीरो ने पूरा किया जिसका नाम था राधानाथ सिकदर। अठारह साल की 
उम्र में वह दिसंबर 1831 में 'ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे' विभाग में संगणक पद पर नियुक्त हुआ। वेतन था 30 
रुपए मासिक। मेधावी और बहुत परिश्रमी होने के साथ-साथ उसमें गणितीय क्षमता अद्भुत थी, अंग्रेजी भी अच्छी थी। एवरेस्ट उससे बहुत प्रभावित था और जल्दी ही उसे उप-सहायक बना कर उसका वेतन 107 रुपए पर पहुंचा दिया। इस पद पर तब  तक यूरोपीय ही नियुक्त होते थे।    

पुस्तक उस समय की परिस्थितियों का जीवंत चित्र सामने रख देती है। उसका एक रोचक नमूना यह है: नवनियुक्त बंगाली युवक सीधे स्कूल से आते थे। उन्हें सरकारी कल्चर की कोई समझ न थी। एवरेस्ट उनकी वेशभूषा देखकर क्रोधित होता। काफी गुस्सैल होते हुए भी वह स्थानीय लोगों पर कभी गुस्सा नहीं उतारता था। यह उसकी नीति थी। यहाँ भी उसने युवकों के समक्ष कोई नाराजगी जाहिर नहीं की। 
बस यह निर्देश भिजवा दिया कि वे पेंट न पहन सकें तो धोती की जगह पजामा तो पहनें और बूट नहीं तो 
चप्पल की जगह साधारण काले जूते ही पहनकर ऑफिस आया करें।  

त्रिकोणात्मक सर्वेक्षण में त्रिकोण के लिए उपयुक्त स्थल तलाशने के लिए बहुत मेहनत की जाती और उतनी ही मेहनत आधार रेखा तलाशने के लिए की जाती। पहले कच्चा प्रेक्षण किया जाता फिर बड़ी दूरबीन वाली थियोडोलाइट से वास्तविक प्रेक्षण किया जाता। त्रिकोण के लिए पहाड़ी आदि ऊंचे स्थल आदर्श होते हैं  क्योंकि वहां झंडा या रोशनी देखने में मार्ग में कोई अवरोध नहीं होता था। जहाँ पहाड़ नहीं होते, वहां ऊंचे भवन, मंदिर या मस्जिद तलाशी जातीं। जहां ये सब न होते तो कहीं मचान बनानी पड़ती थीं तो कहीं मीनारें। वहां फिर भारी भरकम यंत्रों को पहुँचाना होता था जो आसान न होता।   

सही जगह तलाशने के लिए एवरेस्ट खुद भी प्रतिदिन 20 से 30 मील पैदल चलता, सूर्योदय से सूर्यास्त तक इलाकों की खाक छानता। काम जो जज्बा लैम्बटन में था, वही जज्बा एवरेस्ट में था। गुणवत्ता का स्तर ऐसा कि एक बार जब सात-आठ मील की आधार रेखा की दंड से नापी दूरी को जब 86 त्रिकोणों की माप के आधार पर की गई गणना से प्राप्त दूरी को मिलाया गया तो महज साढ़े छह इंच का अंतर निकला। यह इस्तेमाल की जा रही प्रणाली की विश्वसनीयता का सबूत था। 

78 डिग्री देशांतर को, जिसे महत्तम चाप भी कहा जाता है, मापने की शुरूआत लैम्बटन ने कन्याकुमारी से की थी और यह काम मैदान, पठार, जंगलों, पर्वतों, जल प्लावित क्षेत्रों, दलदलों, घनी बस्तियों आदि तरह-तरह के क्षेत्रों से होकर गुजरते हुए 1834 तक काफी पूरा हो चुका था। अब उसकी समापन आधार रेखा तय करने की बारी थी जिसके लिए एवरेस्ट ने देहरादून को चुना और मसूरी में डेरा डाल दिया।

पर देहरादून में एवरेस्ट को गठिया का ऐसा दौरा पड़ा कि बाईं जांघ ने बिल्कुल काम करना बंद कर दिया और कूल्हें में असहनीय दर्द होने लगा। डाक्टर ने उसे त्रिकोणीय सर्वेक्षण कार्य से एकदम अलग हो जाने की सलाह दी, पर वह तो लैम्बटन जैसा ही हठी था। नतीजा यह कि तबियत इतनी ख़राब हो गई कि मई 1835 से अक्टूबर 1835 तक उसे बिस्तर पर ही पड़ा रहना पड़ा। उस समय गठिया के इलाज भी अजीब थे। एक हजार से ज्यादा बार जोंकों से खून चुसवा कर उसके रक्त की सफाई की गई। उसकी बीमारी की ख़बरों के बीच सरकार ने एक अन्य सर्वेक्षक, जरविस को कार्यकारी महासर्वेक्षक नियुक्त कर दिया था जिसे एवरेस्ट अधकचरे ज्ञान वाला मानता था। ऐसे व्यक्ति के लिए जो गुणवत्ता बनाए रखने के लिए दिनरात एक किए रखता था, यह स्थिति बहुत अपमानजनक थी। बहरहाल एवरेस्ट ने उसे डिग्री 78 देशांतर के काम से दूर रखा।  

महा-अभियान का समापन दो स्थानों पर एकसाथ खगोलीय प्रेक्षण के साथ ख़त्म करने की योजना 
बनी। इसके लिए मुज़फ्फरनगर के कचौली गांव स्थित कलियाना की अस्थायी खगोलीय वेधशाला में 
और साथ ही विदिशा जिले के कल्याणपुर में तारों को देखकर पाठ्यांक नोट करना तय हुआ। इसके लिए दो दल बनाए गए। इसके बाद यही काम फिर विदिशा से बीदर के बीच दोहराया गया। अंततः 11 जनवरी, 1841 को खगोलीय प्रेक्षण कार्य पूरा हुआ और सारी अस्थायी खगोलीय वेधशालाएं स्थानीय राजनीतिक प्रतिनिधियों के सुपुर्द कर दी गईं। लेकिन एवेरेस्ट का चार्ट बनाने, रिपोर्ट तैयार करने और गणना करने का कार्य चलता रहा। सर्वेक्षण का काम ख़त्म हो चुका था इसलिए उसने मसूरी स्थित घर छोड़ दिया और 1844 की शुरूआत में वह वापस इंग्लैंड पहुंच गया। पर गणना कार्य तो अभी बहुत लम्बा चलना था।  

काम का जूनून उस पर इस कदर सवार रहा था कि उसे शादी करने की भी फुर्सत नहीं मिली। 17 नवम्बर, 1846  को  आख़िरकार 56 वर्ष की उम्र में उसने एमा से विवाह किया। इसके कुछ ही महीने पश्चात महत्तम चाप से सम्बंधित उसके सम्पूर्ण गणना कार्य और परिणाम प्रकाशित हुए। उसने पृथ्वी के आकार सम्बन्धी स्थिरांक भी दिए जिन्हें एवरेस्ट स्थिरांक कहा  जाता है।  इन्हें भारतीय भूभाग में समस्त भौगोलिक कार्य जैसे मानचित्रण, समुद्र तल से ऊंचाई, दो स्थलों के बीच दूरी ज्ञात करने आदि में इस्तेमाल किया जाता है। उसने पृथ्वी के दो अर्द्ध मुख्य अक्ष की माप क्रमशः 6,477,301 और 6,356,100  मीटर बताई जो आज अंतरिक्ष प्रेक्षण में पाई गई माप से बहुत भिन्न नहीं है। इस तरह 1847 में जाकर यह काम समाप्त हुआ। 

इस पूरे अभियान में 45 साल लगे जिस दौरान 2,500 किलोमीटर लम्बे चाप (78 डिग्री देशांतर रेखा) को असाधारण परिशुद्धता के साथ नापा गया। एवरेस्ट स्थिरांक से विश्व के वैज्ञानिक समुदाय को काफी मदद मिली। इसी मान के आधार पर हिमालय की चोटियों की सही-सही ऊंचाई ज्ञात करना आसान हो गया। और तब 1850 में पता चला कि गणना-पुस्तिका में जिसे 'पीक-15' कहा गया है, वह सबसे ऊंची चोटी है। 1856 में इसका ही नाम माउंट एवरेस्ट रखा गया।  

पूरी पुस्तक दिलचस्प वाकयों से भरी है। इतिहास और रोमांचक किस्से-कहानियों के बीच विज्ञान की बातें पढ़ना मजेदार अनुभव है। ऐसी किताबें निरंतर लिखी जानी चाहिए और पढ़ी जानी चाहिए।   


महा-अभियान की महागाथा--78 डिग्री
लेखक: अरुण कुमार असफल
प्रकाशक: सेतु प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 250 रुपए 

(इस पुस्तक समीक्षा का संक्षिप्त रूप मशहूर साहित्य पत्रिका 'हंस' के अप्रैल, 2020 अंक में प्रकाशित हो चुका है)



Thursday, July 2, 2020

कोविड-19 के इलाज के लिए असरदार 'एन्टीबॉडी' बनाने में 'गाय' कर सकती है मदद

विनोद वार्ष्णेय
कोरोना वायरस का प्रसार थमने का नाम नहीं ले रहा। दुनिया में इस लेख के लिखे जाने तक एक करोड़ से अधिक लोग संक्रमित पाए जा चुके हैं और इस नए दुश्मन से लड़ते हुए पांच लाख से ऊपर लोग जान गँवा चुके हैं। भारत में भी कुल संक्रमण के मामले छह लाख को पार कर चुके हैं और 17,800  लोग अपनी जान गँवा चुके हैं। यह संख्या बड़ी है, पर विशेषज्ञों का कहना है कि यह कम है क्योंकि गणना में वे लोग शामिल नहीं जिनका टेस्ट ही नहीं हुआ। भारत ही नहीं दुनिया भर में दसियों लाख लोग ऐसे हैं जिन्हें संक्रमण हुआ, पर उन्हें पता तक न चला। तो लाखों लोग ऐसे हैं जिन्हें संक्रमण हुआ, पर उसका असर इतना हलका था कि जब तक वे टेस्ट कराने की सोचते, तब तक वे ठीक भी हो गए।

पर चिंताजनक खबर यह है कि दुनिया में जैसे-जैसे 'लॉकडाउन' खोलकर कामकाज को पुराने ढर्रे पर लाने की अनुमति मिलने लगी है, संक्रमित लोगों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है। कई अनेक जगह जैसे चीन में, जहाँ इस पर काबू पा लिया गया था, फिर से मामले सामने आने लगे हैं। आखिर कब थमेगा यह सिलसिला? कब तक बनेगा इससे बचने के कारगर उपाय के रूप में टीका और वह टीका भी कितना असरदार होगा; उसका असर कब तक रहेगा और जैसी कि खबरें आई हैं कि कोरोना का यह मौजूदा वायरस 'म्यूटेट' हो रहा है यानी जेनेटिक स्तर पर बदल रहा है, तो क्या नए विकसित रूपों से भी टीका निपट पाएगा?

चिंता यह भी है कि जितनी संख्या में टीकों की जरूरत होगी, क्या उतने फटाफट बन पाएंगे? एक सवाल यह भी है कि उसकी कीमत क्या होगी और क्या आम लोग तक उसकी पहुंच होगी? खबरें आई हैं कि दुनिया का सबसे अमीर देश अमेरिका 'डॉलर' के बलबूते आने वाले टीकों पर अपना 'पहला' अधिकार बनाने का इंतजाम कर चुका है। उसके लिए इसका कोई मतलब नहीं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपील की थी कि टीका 'सार्वजनिक संपत्ति' होनी चाहिए। फ़िलहाल दुनिया में टीका-विकास के 129 प्रयास चल रहे हैं जिनमें से 12 मानव परीक्षण के दौर में हैं और अनुमान है कि साल के अंत तक आपद इस्तेमाल के लिए कोई-न-कोई टीका तैयार हो जाएगा। पर अभी तक केवल चीन ने घोषणा की है कि अगर उसका टीका तीसरे मानव परीक्षण में कामयाब होता है, तो वह सबके लिए उपलब्ध होगा यानी उस पर पेटेंट की बंदिश नहीं होगी। टीके की दौड़ में वह काफी आगे भी है। पर चूंकि चीन में पर्याप्त संख्या में अब संक्रमण नहीं हो रहा इसलिए वह मानव-परीक्षण के लिए ब्राज़ील, कनाडा आदि देशों पर निर्भर है।  

पर टीके को लेकर असली चिंता यह है कि विश्व में जितने भी टीके इस समय विकसित किए जा रहे हैं, वे सब उस वायरस के आधार पर तैयार किए जा रहे हैं जो वुहान (चीन) से निकला था जिससे यह शंका स्वाभाविक रूप से उठती है कि क्या ये टीके 'म्यूटेट' हो रहे वायरस के खिलाफ सचमुच कामयाब होंगे। कोविड-19 की कोई सटीक दवा अभी नहीं और किसी नई दवा का ईजाद करना तो बहुत ही समयसाध्य होता है। फ़िलहाल पहले से इस्तेमाल हो रही दवाएं—चाहे वे पेट के कीड़े मारने वाली हों या एचआईवी/एड्स के खिलाफ एंटीवायरल दवाओं का मिश्रण हों या फ्लू की दवा हों या मलेरिया की या इबोला की या केवल स्टेरॉयड—हर किसी को आजमाया जा रहा है जो आंशिक रूप से ही सफल हो रही हैं। 

इन सबकी तुलना में संक्रमण के बाद स्वस्थ हो चुके व्यक्ति के प्लाज्मा से हासिल एन्टीबॉडी के आधार पर चिकित्सा, अपेक्षाकृत अधिक सफल  हो रही है।    

एक बात गौरतलब है, बैक्टीरिया के संक्रमण से दवाएं आसानी से निपट लेती हैं, पर वैसा वायरस के मामले में नहीं होता। वायरस के मामले में 'ब्रॉड स्पेक्ट्रम' वाली बात भी नहीं होती कि एक ही दवा बहुत तरह के वायरसों से निपट ले। हर विशिष्ट वायरस के लिए एकदम अलग ही दवा खोजनी होती है। 

पर संक्रमित व्यक्ति के रक्त में वायरस से लड़ने के लिए स्वाभाविक रूप से जो एन्टीबॉडी पैदा होती हैं, वे नई सटीक दवा विकसित करने के लिए उपयुक्त मूल सामग्री के रूप में इस्तेमाल हो सकती हैं। इसलिए बहुतेरे वैज्ञानिकों का मानना है कि मानव एन्टीबॉडी के आधार पर दवा विकसित करने की टेक्नोलॉजी विकसित करने पर ही सबसे अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे भविष्य में भी संभावित नए वायरसों से निपटना आसान होगा।  

फ़िलहाल इलाज के लिए  'एन्टीबॉडी' की उपलब्धता प्लाज्मा के जरिए ही हो रही है। इसकी सफलता की खबरें अनेक देशों से आ रही हैं। इनमें हाल में दिल्ली के स्वास्थ्यमंत्री सत्येंद्र जैन की चिकित्सा का किस्सा भी जुड़ गया है। 55-वर्षीय मंत्री को अचानक तेज बुखार और सांस की तकलीफ हुई। कोरोना टेस्ट कराया तो रिपोर्ट 'नेगेटिव' थी यानी कोरोना का संक्रमण नहीं था। पर हालत बिगड़ती गई। दुबारा टेस्ट कराया तो टेस्ट 'पॉजिटिव' था यानी वे कोरोना से संक्रमित थे। तब तक उनके रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत घट गई और उन्हें आई.सी.यू. (गहन चिकित्सा कक्ष) में भेजना पड़ा। पर जब उनको कोरोना संक्रमण से स्वस्थ हो चुके एक वालंटियर का प्लाज़्मा चढ़ाया गया तो जादू की तरह 12 घंटे में उनका बुखार उतर गया, ऑक्सीजन देने की भी जरूरत नहीं रही और तीन दिन में तो वे यमदूत को 'टाटा' करके हॉस्पिटल से मुस्कराते हुए बाहर आ गए।  

वे तो आम आदमी पार्टी के नेता थे। पर आम आदमी के लिए स्वस्थ हो चुके व्यक्तियों का प्लाज्मा हासिल करना आसान नहीं होता। इसकी किल्लत के चलते कुछ देशों में तो प्लाज्मा की कालाबाजारी शुरू हो चुकी है। लंदन के 'द गार्डियन' अखबार में छपी एक खबर के मुताबिक पाकिस्तान में तो प्लाज्मा की कीमत 3,800 ब्रिटिश पौंड (साढ़े तीन लाख रुपए) तक पहुँच चुकी है और किसी अमीर मरीज के अस्पताल में घुसते ही प्लाज्मा के दलाल चक्कर काटने लग जाते हैं। वहां इसे 'चमत्कारी' इलाज का दर्जा मिल चुका है।

उधर, अमेरिका सहित अनेक विकसित देशों में प्लाज्मा दान करने वाले वॉलंटियरों को खोजने और उन्हें पंजीकृत करने के लिए टेक्नोलॉजी की मदद ली जा रही है। माइक्रोसॉफ्ट ने इसके लिए एक ऍप भी जारी किया है और लोग स्वेच्छा से प्लाज्मा दान करने के लिए इसमें खुद को पंजीकृत करा रहे हैं।

दिल्ली में भारत का पहला प्लाज्मा बैंक खुल चुका है और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल स्वस्थ हो चुके लोगों से अपील कर रहे हैं कि वे प्लाज्मा दान करें। ऐसा करके वे लोगों की जान बचा सकते हैं। यह बड़ा पुण्य का काम होगा। 


उधर, अनेक बायोटेक कम्पनियाँ भी अपने अनुसंधान के लिए 'प्लाज्मा' बटोरने में जुटी हैं और हजारों नमूनों में से यह खोज रही हैं कि रक्त में मौजूद तमाम तरह की ' एन्टीबॉडीज' में से आखिर कौन-सी ' एन्टीबॉडी' ऐसी है जो 'कोरोनावायरस' का सबसे प्रभावी ढंग से काम तमाम करती है। इस काम में दिलचस्पी रखने वाली अनेक निजी कंपनियों ने आपस में सहयोग करने के लिए ''कोव-आईजी-19'  नाम से एक प्लाज्मा सहयोग समूह (अलायन्स) भी बना लिया है। 'बिल एन्ड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन' भी इसकी मदद कर रहा है।

इस अलायंस की एक भागीदार जापानी कंपनी 'ताकेदा फार्मास्युटिकल' की बात मानें तो मौजूदा प्रयासों के चलते कोई-न-कोई एन्टीबॉडी-आधारित दवा इस साल के अंत तक आ जानी चाहिए। इसके वैज्ञानिकों का दावा है कि वे ऐसी दवा बनाने की चेष्टा में हैं जो म्यूटेट हो चुके सभी वायरसों से निपट सके। उम्मीद जताई जा रही है कि इसको लेकर विश्वस्तरीय ट्रायल जुलाई में ही शुरू हो जाएगा और अगले साल जनवरी तक दवा बाजार में सुलभ होगी। आज ऐसी बायोटेक प्रविधियां मौजूद हैं ही, जिनसे किसी चुनिंदा ' एन्टीबॉडी' का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा सकता है।

इन सब प्रयासों के बीच सबसे दिलचस्प खबर यह है कि एक बायोटेक फर्म ने एक जीन-संशोधित (जेनेटिकली मॉडिफाइड) गाय से इंसानी 'एन्टीबॉडी' तैयार करके दिखाई है। ज्यादातर बायोटेक कंपनियां मोनोक्लोनल (एकल) एंटीबाडी तैयार करने में लगी हैं; पर गाय से जो एंटीबाडी मिलती है, उसका दर्जा 'पॉलीक्लोनल एंटीबाडी' का होता है। जहां मोनोक्लोनल एंटीबाडी वायरस के किसी एक भाग पर हमला करके उसका नाश करती है, वहीँ 'पॉलीक्लोनल एंटीबाडी' की खासियत होगी कि वह वायरस के विविध हिस्सों पर हमला कर सकेगी और उसके बचने का कोई रास्ता नहीं छोड़ेगी। इस काम से जुड़े वैज्ञानिक इसे अधिक प्रकृति-सम्मत तरीका मान रहे हैं। और सबसे बड़ी बात यह कि यह भविष्य में वायरस के म्यूटेट हो जाने पर भी असरदार बनी रह सकती है।  

गाय को एन्टीबॉडी  फैक्ट्री के रूप में इस्तेमाल करने का फायदा यह कि एक गाय हर महीने सैंकड़ों मरीजों के उपचार के लिए एन्टीबॉडी  बनाकर दे सकती है। इस काम से जुड़ी कंपनी 'सैब बायोथेराप्यूटिक्स' के वैज्ञानिकों का दावा है कि परखनली अध्ययनों में इंसान से हासिल एन्टीबॉडी की तुलना में गाय से हासिल की गई एन्टीबॉडी  चार गुना अधिक असरदार पाई गई है। पर कई वैज्ञानिक गाय से एन्टीबॉडी हासिल करने को सबसे अच्छी युक्ति नहीं मानते। उनकी पहली आपत्ति यह है कि सीधे किसी पशु से पैदा की गई एन्टीबॉडी  आज तक किसी भी बीमारी के लिए स्वीकृत नहीं हुई।  

पर इसके ठीक विपरीत सेंट लुई स्थित 'वाशिंगटन युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ़ मेडिसिन' के संक्रामक रोग विशेषज्ञ जेफ्री हैंडरसन का मानना है कि गाय से निर्मित एन्टीबॉडी  तार्किक रूप से मानव एन्टीबॉडी का ही अगला विकासीय चरण है। इसके समर्थन में मजबूत वैज्ञानिक आधार भी है इसलिए इस दिशा में काम तेज किया जाना चाहिए।  

(This article was first published in Hindi Newspaper 'Vaigyanik Drishtikon' on 01-07-2020. It has been mildly updated with a couple of new information.)