Thursday, November 1, 2018

बच्चों ने अपनी आँखों देखा कैसा होता है डीएनए

विनोद वार्ष्णेय 

जीवन का आधार ‘डीएनए’ विस्मयकारी रासायनिक अणु है। कितने लोगों ने अपनी आंखों से डीएनए देखा है ? और कितने लोग जानते व मानते  हैं कि इंसान का आधा डीएनए संरचना में बिलकुल केले के डीएनए जैसा है? लखनऊ के एक स्कूल के 550 बच्चों ने अभी हाल में सामूहिक प्रयोग के दौरान केले से खुद डीएनए निकाल कर देखा और डीएनए के इतिहास और संरचना के बारे में जानने की कोशिश की। बहुत चीजें है डीएनए के बारे में जानने- समझने की। कुछ बातें यहाँ :

डीएनए किसी भी वनस्पति, वायरस, बैक्टीरिया, पशु और मानव, सभी जीवधारियों के जीवन का मूल सारतत्व होता है। इससे जुड़े अनुसंधान ने बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। आज बायोटेक्नोलॉजी उद्योग 400 अरब अमरीकी डालर का हो चुका है। अफ़सोस यह कि इसमें भारत की हिस्सेदारी महज 2 प्रतिशत है। योजनाकारों का सपना है, 2025 तक इसे 13 प्रतिशत तक ले जाया जाए। इसके लिए न केवल कपनियों और सरकारों को अनुसन्धान व्यय बढ़ाना होगा बल्कि तेज दिमाग वाली कुशल मानव शक्ति की भी जरूरत होगी। जरूरी है कि प्रतिभाशाली बच्चों को कम उम्र से ही आण्विक जीवविज्ञान के प्रति आकर्षित जाए।

बच्चों में आण्विक जीव विज्ञान के प्रति ललक पैदा करने की दृष्टि से वह प्रशंसनीय दिन था जब लखनऊ के जी डी गोयनका पब्लिक स्कूल में एक साथ 550 स्कूली बच्चों ने केले के टुकड़ों से डीएनए निकाल कर दिखाया। यह वैज्ञानिक प्रयोग चौथे 'इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल' की एक छोटी सी गतिविधि थी जिसका आयोजन विज्ञान प्रौद्योगिकी मंत्रालय और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने विज्ञान भारती के सहयोग से 5 से 8 अक्टूबर के बीच वैज्ञानिक विषयों पर जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से किया। लेकिन मॉडल-प्रदर्शनी, लब्ध-प्रतिष्ठ वैज्ञानिकों के व्याख्यान, पैनल चर्चा, कार्यशालाएं आदि तमाम अन्य कार्यक्रमों की तुलना में समस्त मीडिया में डीएनए वाली खबर को ही ज्यादा स्थान मिला क्योंकि यह एक नया वर्ड रिकॉर्ड भी बना था। गिनिस वर्ल्ड रिकॉर्ड्स के अनुसार इससे पहले पिछले साल फरवरी में अमेरिका के 'सिएटल रिसर्च सेंटर' में एक साथ 302 स्कूली बच्चों ने स्ट्रॉबेरी के गूदे से डीएनए निकालने का वैज्ञानिक प्रयोग करने का विश्व रिकॉर्ड कायम किया था।

प्रयोग  की चीफ इंस्ट्रक्टर 'इंस्टीट्यूट ऑफ़ फारेस्ट जेनेटिक्स एंड ट्री ब्रीडिंग' की वैज्ञानिक डा. मधुमिता दासगुप्ता बताती हैं कि डीएनए शब्द आज आमफहम है, विद्यार्थी इसके बारे में अखबारों, इंटरनेट यहाँ तक कि उपन्यासों तक में  पढ़ते हैं, लेकिन यह कैसा दिखता है, इसका काम क्या है, इसका इतिहास क्या है आदि चीजों के बारे में वे नहीं जानते। इस तरह के प्रयोग करना विज्ञान सीखने का सहज और प्रभावी तरीका है। कक्षा में रेखांकन, पावर पॉइंट और व्याख्यान से विज्ञान के प्रति वह आत्मीयता नहीं बन पाती। उक्त प्रयोग में 13 से लेकर 17 साल की उम्र के विद्यार्थी शामिल थे। दसवीं कक्षा तक विद्यार्थी डीएनए के बारे में कुछ न कुछ जान चुके होते हैं। उनको इसकी संरचना के बारे में पढ़ाया जाता है, पर यह गलत धारणा बनी रहती है कि डीएनए की सरंचना कुंडली रूप में दो लिपटे हुए धागे जैसे दिखाई देगी। प्रयोग के दौरान विद्यार्थियों को आश्चर्य हुआ होगा कि केले से निकला डीएनए तो सफेद रंग के धागे का गिलगिले गूदे जैसा है।

फेस्टीवल आयोजकों का मानना है कि खुद अपने हाथों से प्रयोग करके उन विद्यार्थियों में बायोटेक्नोलॉजी के प्रति उत्सुकता और उत्साह का अद्भुत संचार हुआ होगा। उनमें से कुछ जरूर भविष्य में विज्ञान को अपना पेशा बनाएंगे। यह तो तय है कि अधिकांश बच्चों के लिए यह जीवन भर अविस्मरणीय दिन बना रहेगा। वस्तुतः इस तरह के आयोजन देश भर में जगह-जगह होने चाहिए।

डीएनए (डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिइक एसिड) की विस्मयजनक बात यह कि यह निर्जीव रासायनिक अणु है, पर जीवन की समस्त क्रियाओं के लिए जरूरी है। डीएनए की खोज बहुत प्राचीन नहीं है। इसकी शुरूआती परिकल्पना सबसे पहले 1868 में स्विट्ज़रलैंड के डाक्टर और जीव वैज्ञानिक जोहानीज फ्रेड्रिख़ मीशा ने प्रस्तुत की थी। बाद में 1944 में ओसवाल्ड एव्री ने न्यूमोनिया के लिए जिम्मेवार न्यूमोकोकल बैक्टीरिया में प्रायोगिक रूप से यह सिद्ध कर दिखाया कि डीएनए ही वह अणु है जो आनुवंशिक गुणों को आगे संततियों में पहुंचाता है। 1953 में एक नई क्रांतिकारी उपलब्धि हासिल हुई जब अमरीकी आनुवंशिकीविद और अणु जीवविज्ञानी जेम्स वाटसन और ब्रिटिश न्यूरोसाइंटिस्ट व अणु जीवविज्ञानी फ्रांसिस क्रिक ने डीएनए की संरचना उद्घाटित की  जिसे उन्होंने आपस में दोहरी कुंडली की तरह लिपटे धागे जैसा बताया। 


वैज्ञानिक मानते हैं  कि डीएनए के अस्तित्व में आने के बाद से पृथ्वी पर जीवन के विकासक्रम में तेजी आई। मानव के सन्दर्भ में तो डीएनए और भी रुचिकर विषय है। हर व्यक्ति का व्यवहार, शक्ल-सूरत, कद-काठी, क्षमताएं, जीवन प्रत्याशा, स्वास्थ्य आदि इन्हीं डीएनए पर निर्भर है। मानव के शरीर में करीब 37 खरब (ट्रिलियन) कोशिकाएं होती हैं जो शरीर की समस्त प्रक्रियाओं को आजीवन संचालित करती रहती हैं। ये निरंतर मरती रहती हैं और नई बनती रहती हैं। पर नई कोशिकाएं भी वही काम करती रहती हैं जो मर चुकी कोशिकाएं करती आई थीं। इन कोशिकाओं के केन्द्रक (न्यूक्लियस) में ही डीएनए अवस्थित रहता है।

यह बात सूक्ष्म जीवों, पशुओं और पेड़ पौधों के लिए भी उतनी ही सच है। यह कहना गलत न होगा कि जीवन की कुंजी डीएनए में है। बिना इसके जीव अपनी पुनरुत्पत्ति नहीं कर सकता। जीवन को जिस रूप में हम देखते, पाते हैं, वह डीएनए के बिना संभव नहीं। पृथ्वी पर किसी किस्म के जीवन का अस्तित्व ही न होता अगर प्राकृतिक परिस्थितियों के विकास क्रम में कोई 400 करोड़ साल पहले पहला डीएनए (डीऑक्सीराइबो नुक्लिइक एसिड) अस्तित्व में न आया होता। पर, उससे भी पहले आरएनए (राइबो नुक्लिइक एसिड) पृथ्वी पर बन चुका था। अगर आरएनए न बना होता तो डीएनए भी न बनता। गहन जिज्ञासा का विषय यह कि इस पृथ्वी पर जीवों का अस्तित्व संभव बनाने के लिए आवश्यक ये नुक्लिइक एसिड आखिर पृथ्वी पर ही क्यों बने। वे क्यों बने और कैसे बने ?

अमेरिकी आनुवंशिकीविद एन एच होरोवित्ज़ ने मंगल गृह पर जीवन की सम्भावना तलाशने के लिए परीक्षण का ब्लूप्रिंट बनाया था और इसके लिए बड़ा नाम कमाया।  उनकी यह अवधारणा भी मशहूर हुई कि जीवन के विकास के लिए तीन अनिवार्य शर्तें हैं: पहली, अपने आप की ठीक हूबहू प्रतिलिपि बनाने की क्षमता होना; दूसरी, अपने गिर्द परिस्थितियों  को इस तरह प्रभावित करने की क्षमता होना जिससे कि अपने जीवन के लिए जरूरी सामग्री  निरंतर मिलती रहे; और तीसरी, नई  परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप में परिवर्तन लाने की क्षमता होना। आधुनिक विज्ञान के अनुसार जीवन एक ऐसी रासायनिक प्रणाली है जो खुद-ब-खुद विकसित होने की क्षमता रखती है। पर किसके बलबूते? यह सब डीएनए के अंदर मौजूद करोड़ों निर्देशों से ही संभव होता है। विकास-क्रम में जब डीएनए एक ऐसे अणु के रूप में सामने आया जो अपनी प्रतिलिपि बनाने में कामयाब था तो इससे जीवन विकास की प्रक्रिया तेज हुई। विकास क्रम में बहुत बाद में जाकर कोशिकाओं का उद्भव हुआ।

पिछले चार दशकों में निरंतर डीएनए आधारित अनुप्रयोगी अनुसन्धान होते रहे हैं और अनेकानेक उपयोगी तकनीकें विकसित हुई हैं। बलात्कार, हत्या, पितृत्व की पुष्टि आदि मामलों में डीएनए फिंगर प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी की भूमिका के बारे में तो बहुत लोग जानते हैं। डीएनए के आधार पर बीमारियों के निदान के लिए नए-नए नैदानिक (डायग्नोस्टिक) तरीके भी विकसित हो रहे हैं। जड़ी बूटी आधारित औषधि निर्माण के लिए विशुद्धता परखने के लिए भी डीएनए सबसे विश्वसनीय टूल बन चुका है। वायरस जनित रोगों के खिलाफ टीके विकसित करने के लिए भी वायरस की सही प्रजाति-पहचान के लिए भी डीएनए को अलग करके देखा जाता है। जीन चिकित्सा की संभावनाएं तो दिन-ब-दिन प्रबल होती जा रही हैं। अब तो आधुनिक अनुसंधान की बदौलत सिंथेटिक जीवविज्ञान का युग शुरू होने वाला है जो प्रकृति में कहीं न पाए जाने वाले कृत्रिम डीएनए-सृजन  पर आधारित होगा। इनके नए व्यावहारिक उपयोग भी सामने आएंगे।

उम्मीद करनी चाहिए कि आज जो किशोर-किशोरियां डीएनए के रहस्य पर विस्मित होंगे, उनमें से जरूर कुछ कल के नए जीव विज्ञान में अपनी भूमिका निभाने की क्षमता अर्जित कर दिखाएंगे। 

डीएनए निकालने की किट भारत में ही बनी

विश्व भर में चर्चित हुए बच्चों के इस प्रयोग से जुड़ा एक अन्य पहलू भी हैं। इस परीक्षण के लिए जिस किट का इस्तेमाल किया गया, उसका विकास कोयंबटूर स्थित 'इंस्टीट्यूट ऑफ़ फारेस्ट जेनेटिक्स एंड ट्री ब्रीडिंग' की वैज्ञानिक डा. मधुमिता दासगुप्ता ने अपनी एक विद्यार्थी सहयोगी राधा वलुताक्कल के साथ मिलकर किया था। इसका अनुसंधान 2008 में हो गया था, 2009 में इसे पेटेंट कराया गया और 2017 में अनेक सुधार के बाद व्यावसायिक तौर पर 'आर्बरईजी' नाम से इसे बाजार में उतारा गया। इस नए किट के विकास की जरूरत इसलिए पड़ी कि बाजार में उपलब्ध किट सूखे पेड़ पत्ती से डीएनए नहीं निकाल पाते थे। वे केवल नरम और ताजा फलों, सब्जियों के लिए ही उपयुक्त थे। पर यह भारतीय किट अन्य उपलब्ध किटों से किफायती और बेहतर है। लेकिन इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टिवल में जो किट प्रयुक्त किया गया,  उसमें उक्त प्रयोग के नजरिये से विशेष परिवर्तन किये गए। 
डीएनए कोशिकाओं के अंदर होता है और इसे निकलने के लिए पहला काम कोशिकाओं के बाहरी आवरण को तोड़ना होता है। इसके लिए बनाये गए रासायनिक घोल (बफर) का विकास इसी संस्थान में किया गया।

(इस लेख का कुछ अंश 'आउटलुक' मैगज़ीन में प्रकाशित  हो चुका  है)