विनोद वार्ष्णेय
वैसे तो हर बीमारी नामुराद होती है लेकिन चिकुनगुनिया से लोग विशेष रूप से घबराते हैं। वजह यह है कि इसके शिकार महीनों, कभी-कभी तो सालों तक जोड़ों के भयंकर दर्द और सूजन से परेशान रहते हैं। कई बार आजीवन रहने वाली विकलांगता भी हो जाती है। तुलनात्मक रूप से यह नई बीमारी है। 1952 से पहले इसे कोई जानता न था। पहली बार 1952 में अफ्रीकी देश तंजानिया में इसका प्रकोप हुआ। लेकिन आज यह एशिया, अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका आदि सभी महाद्वीपों में करीब 100 से ऊपर देशों में फैल चुकी है। भारत के हर राज्य में यह अपना प्रकोप फैला चुकी है। आंकड़े हैं कि हर साल भारत में इसके 10 लाख मरीज सामने आ रहे हैं।
चिकुनगुनिया वायरस जन्य बीमारी है। इसका वायरस ‘चिकवी’ एडिस प्रजाति के मच्छर के जरिये फैलता है। यह वायरस मच्छरों या हड्डी वाले जीवों के रक्त में ही फलता-फूलता है और वहां अपनी आबादी बढ़ाता है। वैसे तो मनुष्य का अनेक तरह के वायरसों से पाला पड़ता रहता है लेकिन शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता उनसे निपटती रहती है। कुछ वायरसों जैसे फ्लू, पोलियो, हेपेटाइटिस-बी आदि से निपटने के लिए टीके बन चुके हैं तो उनके इस्तेमाल से इनसे बचाव हो जाता है। लेकिन जहाँ तक चिकवी का सवाल है, इससे न शरीर की सामान्य रोग प्रतिरोधक क्षमता निपट पाती और न इससे बचाव के लिए कोई टीका बना है।
चिकवी से संक्रमित मच्छर जब मनुष्य को काटता है तो वायरस उसके रक्त में पहुँच जाता है। वहां से वह कोशिकाओं के अंदर घुस जाता है जहाँ वह अपने लिए तो पोषण हासिल करता है लेकिन खुद ऐसे रसायन पैदा करता है जो मनुष्य के लिए बुखार, भीषण दर्द और बेचैनी का कारण बन जाते हैं। आज दुनिया भर में इसकी कोई प्रमाणित और लइसेंस-शुदा दवा नहीं है। केवल बुखार, दर्द, सूजन आदि कम करने वाली औषधियों से मरीज को राहत दिलाने की चेष्टा की जाती है। बहरहाल दुनियाभर में इस वायरस-जन्य बीमारी से निपटने के लिए दवा विकसित करने की मांग है।
उल्लेखनीय है कि विश्व भर में कई दशकों से वायरस या बैक्टीरिया-जन्य लाइलाज बीमारियों से निपटने के लिए वानस्पतिक स्रोतों से मिलने वाले नए-नए जैव सक्रिय यौगिकों से नई-नई दवाएं विकसित करने के उपक्रम चल रहे हैं। इसके लिए पारम्परिक चिकित्सा साहित्य या जनजातियों में उपलब्ध जानकारी का इस्तेमाल किया जाता है। इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप पौधों से मिलने वाले प्राकृतिक उत्पादों से ऐसे अनेक यौगिक खोजे जा चुके हैं जिनका आधुनिक दवा उद्योग में जमकर इस्तेमाल हो रहा है। अनुमान है कि आज 40% आधुनिक दवाएं प्राकृतिक स्रोतों से मिले यौगिकों से बनती हैं। उन प्राकृतिक यौगिकों को संश्लेषित करने की विधियां भी ढूंढ़ ली गई हैं।
प्राकृतिक तथ्य है कि हर वायरस की अपनी जिजीविषा होती है और वे देर-सबेर एंटीवायरल दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधिता विकसित कर लेते हैं और नतीजा यह कि प्रचलित दवाएं बेअसर होने लगती हैं। यही वजह है कि निरंतर नए प्रभावी यौगिकों की तलाश आज एक अनिवार्यता बन गई है।
चिकवी वायरस से निपटने के लिए जब औषधि ढूढ़ने की बात आई तो भारत में आयुर्वेद और प्राचीन लोक औषधियों के साहित्य को खंगाला गया। पाया गया कि 'कालमेघ' नामक बूटी सूजन कम करने और बुखार उतारने में प्रयुक्त होती रही है। इसका पौधा पीले भूरे रंग का और बेहद कड़वा होता है। शरद ऋतु आने पर जमीन के ऊपर वाले हिस्से की कटाई कर ली जाती है जिसके आधार पर विभिन्न रोगों के लिए करीब 26 आयुर्वेदिक दवाइयां बनाई जा रही हैं। आधुनिक उन्नत प्रयोगशालों में किए गए विभिन्न परीक्षणों में पाया गया है कि इसका जैव-सक्रिय यौगिक 'एंड्रोग्रफोलॉइड' अनेक किस्म के वायरसों को मारने की क्षमता रखता है।
चिकवी की दवा खोजने के क्रम में पहले के कुछ प्रयासों की चर्चा जरूरी है। वायरस की अनेक किस्में होती हैं जिनमें से चिकवी वायरस को अल्फा-वायरस प्रजाति में वर्गीकृत किया गया है। अल्फा-वायरस शरीर में सूजन पैदा करने और कार्टिलेज (लम्बी हड्डियों के सिरे पर मौजूद नरम ऊतक) को क्षति पहुंचाने के लिए जाना जाता है। परीक्षणों में इस क्षति को रोकने में पेंटोसन पोलीसल्फेट नामक एक कार्बोहाइड्रेट आधारित पॉलिमर उपयोगी पाया जा चुका है।
इसी तरह पाया गया कि कृत्रिम माइक्रो-आरएनए के प्रयोग से चिकवी की प्रतिकृतियां बनाने से रोका जा सकता है। इसके अलावा वाइरस को कमजोर कर जब शरीर में प्रवेश कराया जाता है तो शरीर में उसके खिलाफ स्वतः रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाती है। इस आधार पर बने टीके भी आजमाए जा चुके हैं और पाया गया है कि इससे लघु और लम्बी अवधि के लिए बचाव संभव है। लेकिन हरेक में कुछ न कुछ समस्या है जिसकी वजह से चिकुनगुनिया के लिए अभी तक न कोई टीका विधिवत मंजूर हुआ है और न ही कोई दवा। इसलिए नए-नए परीक्षण और अनुसंधान जारी हैं।
दिल्ली स्थित 'डिफेन्स इंस्टिट्यूटऑफ फिजियोलॉजी एन्ड अलाइड साइंसेज' में शोध अध्येता स्वाती गुप्ता, डॉ. लिली गंजू, डॉ. कमला प्रसाद मिश्रा और शशि बाला सिंह तथा ग्वालियर-स्थित 'डिफेंस रिसर्च एन्ड डेवलपमेंट एस्टैब्लिशमेंट' में पवन कुमार दास, मनमोहन परीदा की टीम ने कालमेघ बूटी से प्राप्त यौगिक 'एंड्रोग्रफोलाइड' का चिकुनगुनिया से संक्रमित कोशिकाओं पर परीक्षण किए तो इसे उन्होंने जादुई असर वाला पाया। उक्त वैज्ञानिकों की टीम ने पाया कि चूहों की संक्रमित कोशिकाओं पर इसका असर यह है कि जलन और बुखार पैदा करने वाले रसायनों का बनना काफी कम हो जाता है। जब इस यौगिक का असर मानव कोशिकाओं पर जांचा गया तो निष्कर्ष निकला कि वायरस की प्रतिकृतियां बननी कम हो गईं। यह भी देखा गया कि बैक्टीरिया और वायरसों से लड़ने वाली प्रतिरोधक कोशिकाओं (इम्यून सेल्स) की संख्या बढ़ गई।
उक्त वैज्ञानिकों ने पहली बार इस ज्ञात एंटी-वायरल यौगिक का जीवों (एल्बीनो चूहों के नवजात बच्चों) में भी परीक्षण किया और उस समूची प्रक्रिया का पता लगाया कि किस तरह यह शरीर को चिकवी वायरस से मुक्त कर देता है। आशाजनक बात यह कि यह यौगिक न केवल वायरस के जहरीले (टॉक्सिक) असर को कम करता है बल्कि रोगी में रोग प्रतिरोधक कोशिकाओं की संख्या बढाकर इस वायरस के खिलाफ लड़ने की क्षमता में वृद्धि कर देता है। माना जा सकता है कि इसके आधार पर बनी दवा न केवल रोगी को चिकुनगुनिया से मुक्त कर सकेगी बल्कि स्वस्थ व्यक्ति को दिए जाने पर संभवतः महामारी के दिनों में चिकवी संक्रमण से बचाव भी कर सकेगी।
लेकिन उक्त भारतीय वैज्ञानिकों का मानना है कि दवा के विधिवत विकास के लिए अभी अन्य जीवों पर इसके परीक्षण की जरूरत है। आधुनिक औषधि-विकास पद्धति में दवा के क्लिनिकल परीक्षण मनुष्यों में भी किए जाते हैं। उक्त भारतीय अनुसंधान के बाद सम्भवतः इस दिशा में कार्यक्रम बनाए जाएंगे।
वैसे तो हर बीमारी नामुराद होती है लेकिन चिकुनगुनिया से लोग विशेष रूप से घबराते हैं। वजह यह है कि इसके शिकार महीनों, कभी-कभी तो सालों तक जोड़ों के भयंकर दर्द और सूजन से परेशान रहते हैं। कई बार आजीवन रहने वाली विकलांगता भी हो जाती है। तुलनात्मक रूप से यह नई बीमारी है। 1952 से पहले इसे कोई जानता न था। पहली बार 1952 में अफ्रीकी देश तंजानिया में इसका प्रकोप हुआ। लेकिन आज यह एशिया, अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका आदि सभी महाद्वीपों में करीब 100 से ऊपर देशों में फैल चुकी है। भारत के हर राज्य में यह अपना प्रकोप फैला चुकी है। आंकड़े हैं कि हर साल भारत में इसके 10 लाख मरीज सामने आ रहे हैं।
चिकुनगुनिया वायरस जन्य बीमारी है। इसका वायरस ‘चिकवी’ एडिस प्रजाति के मच्छर के जरिये फैलता है। यह वायरस मच्छरों या हड्डी वाले जीवों के रक्त में ही फलता-फूलता है और वहां अपनी आबादी बढ़ाता है। वैसे तो मनुष्य का अनेक तरह के वायरसों से पाला पड़ता रहता है लेकिन शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता उनसे निपटती रहती है। कुछ वायरसों जैसे फ्लू, पोलियो, हेपेटाइटिस-बी आदि से निपटने के लिए टीके बन चुके हैं तो उनके इस्तेमाल से इनसे बचाव हो जाता है। लेकिन जहाँ तक चिकवी का सवाल है, इससे न शरीर की सामान्य रोग प्रतिरोधक क्षमता निपट पाती और न इससे बचाव के लिए कोई टीका बना है।
चिकवी से संक्रमित मच्छर जब मनुष्य को काटता है तो वायरस उसके रक्त में पहुँच जाता है। वहां से वह कोशिकाओं के अंदर घुस जाता है जहाँ वह अपने लिए तो पोषण हासिल करता है लेकिन खुद ऐसे रसायन पैदा करता है जो मनुष्य के लिए बुखार, भीषण दर्द और बेचैनी का कारण बन जाते हैं। आज दुनिया भर में इसकी कोई प्रमाणित और लइसेंस-शुदा दवा नहीं है। केवल बुखार, दर्द, सूजन आदि कम करने वाली औषधियों से मरीज को राहत दिलाने की चेष्टा की जाती है। बहरहाल दुनियाभर में इस वायरस-जन्य बीमारी से निपटने के लिए दवा विकसित करने की मांग है।
उल्लेखनीय है कि विश्व भर में कई दशकों से वायरस या बैक्टीरिया-जन्य लाइलाज बीमारियों से निपटने के लिए वानस्पतिक स्रोतों से मिलने वाले नए-नए जैव सक्रिय यौगिकों से नई-नई दवाएं विकसित करने के उपक्रम चल रहे हैं। इसके लिए पारम्परिक चिकित्सा साहित्य या जनजातियों में उपलब्ध जानकारी का इस्तेमाल किया जाता है। इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप पौधों से मिलने वाले प्राकृतिक उत्पादों से ऐसे अनेक यौगिक खोजे जा चुके हैं जिनका आधुनिक दवा उद्योग में जमकर इस्तेमाल हो रहा है। अनुमान है कि आज 40% आधुनिक दवाएं प्राकृतिक स्रोतों से मिले यौगिकों से बनती हैं। उन प्राकृतिक यौगिकों को संश्लेषित करने की विधियां भी ढूंढ़ ली गई हैं।
प्राकृतिक तथ्य है कि हर वायरस की अपनी जिजीविषा होती है और वे देर-सबेर एंटीवायरल दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधिता विकसित कर लेते हैं और नतीजा यह कि प्रचलित दवाएं बेअसर होने लगती हैं। यही वजह है कि निरंतर नए प्रभावी यौगिकों की तलाश आज एक अनिवार्यता बन गई है।
चिकवी वायरस से निपटने के लिए जब औषधि ढूढ़ने की बात आई तो भारत में आयुर्वेद और प्राचीन लोक औषधियों के साहित्य को खंगाला गया। पाया गया कि 'कालमेघ' नामक बूटी सूजन कम करने और बुखार उतारने में प्रयुक्त होती रही है। इसका पौधा पीले भूरे रंग का और बेहद कड़वा होता है। शरद ऋतु आने पर जमीन के ऊपर वाले हिस्से की कटाई कर ली जाती है जिसके आधार पर विभिन्न रोगों के लिए करीब 26 आयुर्वेदिक दवाइयां बनाई जा रही हैं। आधुनिक उन्नत प्रयोगशालों में किए गए विभिन्न परीक्षणों में पाया गया है कि इसका जैव-सक्रिय यौगिक 'एंड्रोग्रफोलॉइड' अनेक किस्म के वायरसों को मारने की क्षमता रखता है।
चिकवी की दवा खोजने के क्रम में पहले के कुछ प्रयासों की चर्चा जरूरी है। वायरस की अनेक किस्में होती हैं जिनमें से चिकवी वायरस को अल्फा-वायरस प्रजाति में वर्गीकृत किया गया है। अल्फा-वायरस शरीर में सूजन पैदा करने और कार्टिलेज (लम्बी हड्डियों के सिरे पर मौजूद नरम ऊतक) को क्षति पहुंचाने के लिए जाना जाता है। परीक्षणों में इस क्षति को रोकने में पेंटोसन पोलीसल्फेट नामक एक कार्बोहाइड्रेट आधारित पॉलिमर उपयोगी पाया जा चुका है।
इसी तरह पाया गया कि कृत्रिम माइक्रो-आरएनए के प्रयोग से चिकवी की प्रतिकृतियां बनाने से रोका जा सकता है। इसके अलावा वाइरस को कमजोर कर जब शरीर में प्रवेश कराया जाता है तो शरीर में उसके खिलाफ स्वतः रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाती है। इस आधार पर बने टीके भी आजमाए जा चुके हैं और पाया गया है कि इससे लघु और लम्बी अवधि के लिए बचाव संभव है। लेकिन हरेक में कुछ न कुछ समस्या है जिसकी वजह से चिकुनगुनिया के लिए अभी तक न कोई टीका विधिवत मंजूर हुआ है और न ही कोई दवा। इसलिए नए-नए परीक्षण और अनुसंधान जारी हैं।
दिल्ली स्थित 'डिफेन्स इंस्टिट्यूटऑफ फिजियोलॉजी एन्ड अलाइड साइंसेज' में शोध अध्येता स्वाती गुप्ता, डॉ. लिली गंजू, डॉ. कमला प्रसाद मिश्रा और शशि बाला सिंह तथा ग्वालियर-स्थित 'डिफेंस रिसर्च एन्ड डेवलपमेंट एस्टैब्लिशमेंट' में पवन कुमार दास, मनमोहन परीदा की टीम ने कालमेघ बूटी से प्राप्त यौगिक 'एंड्रोग्रफोलाइड' का चिकुनगुनिया से संक्रमित कोशिकाओं पर परीक्षण किए तो इसे उन्होंने जादुई असर वाला पाया। उक्त वैज्ञानिकों की टीम ने पाया कि चूहों की संक्रमित कोशिकाओं पर इसका असर यह है कि जलन और बुखार पैदा करने वाले रसायनों का बनना काफी कम हो जाता है। जब इस यौगिक का असर मानव कोशिकाओं पर जांचा गया तो निष्कर्ष निकला कि वायरस की प्रतिकृतियां बननी कम हो गईं। यह भी देखा गया कि बैक्टीरिया और वायरसों से लड़ने वाली प्रतिरोधक कोशिकाओं (इम्यून सेल्स) की संख्या बढ़ गई।
उक्त वैज्ञानिकों ने पहली बार इस ज्ञात एंटी-वायरल यौगिक का जीवों (एल्बीनो चूहों के नवजात बच्चों) में भी परीक्षण किया और उस समूची प्रक्रिया का पता लगाया कि किस तरह यह शरीर को चिकवी वायरस से मुक्त कर देता है। आशाजनक बात यह कि यह यौगिक न केवल वायरस के जहरीले (टॉक्सिक) असर को कम करता है बल्कि रोगी में रोग प्रतिरोधक कोशिकाओं की संख्या बढाकर इस वायरस के खिलाफ लड़ने की क्षमता में वृद्धि कर देता है। माना जा सकता है कि इसके आधार पर बनी दवा न केवल रोगी को चिकुनगुनिया से मुक्त कर सकेगी बल्कि स्वस्थ व्यक्ति को दिए जाने पर संभवतः महामारी के दिनों में चिकवी संक्रमण से बचाव भी कर सकेगी।
लेकिन उक्त भारतीय वैज्ञानिकों का मानना है कि दवा के विधिवत विकास के लिए अभी अन्य जीवों पर इसके परीक्षण की जरूरत है। आधुनिक औषधि-विकास पद्धति में दवा के क्लिनिकल परीक्षण मनुष्यों में भी किए जाते हैं। उक्त भारतीय अनुसंधान के बाद सम्भवतः इस दिशा में कार्यक्रम बनाए जाएंगे।
(स्रोत: जर्नल ऑफ़ एप्लाइड
माइक्रोबायोलॉजी; एशियन पैसिफिक जर्नल ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन)