Saturday, November 16, 2019

'चिकुनगुनिया' की बूटी-आधारित जादुई दवा का मार्ग प्रशस्त


विनोद वार्ष्णेय

वैसे तो हर बीमारी नामुराद होती है लेकिन चिकुनगुनिया से लोग विशेष रूप से घबराते हैं। वजह यह है कि इसके शिकार महीनों, कभी-कभी तो सालों तक जोड़ों के भयंकर दर्द और सूजन से परेशान रहते हैं। कई बार आजीवन रहने वाली विकलांगता भी हो जाती है। तुलनात्मक रूप से यह नई बीमारी है। 1952 से पहले इसे कोई जानता न था। पहली बार 1952 में अफ्रीकी देश तंजानिया में इसका प्रकोप हुआ। लेकिन आज यह एशिया, अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका आदि सभी महाद्वीपों में करीब 100 से ऊपर देशों में फैल चुकी है। भारत के हर राज्य में यह अपना प्रकोप फैला चुकी है। आंकड़े हैं कि हर साल भारत में इसके 10 लाख मरीज सामने आ रहे हैं। 

चिकुनगुनिया वायरस जन्य बीमारी है। इसका वायरस ‘चिकवी’ एडिस प्रजाति के मच्छर के जरिये फैलता है। यह वायरस मच्छरों या हड्डी वाले जीवों के रक्त में ही फलता-फूलता है और वहां अपनी आबादी बढ़ाता है। वैसे तो मनुष्य का अनेक तरह के वायरसों से पाला पड़ता रहता है लेकिन शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता उनसे निपटती रहती है। कुछ वायरसों जैसे फ्लू, पोलियो, हेपेटाइटिस-बी आदि से निपटने के लिए टीके बन चुके हैं तो उनके इस्तेमाल से इनसे बचाव हो जाता है। लेकिन जहाँ तक चिकवी का सवाल है, इससे न शरीर की सामान्य रोग प्रतिरोधक क्षमता निपट पाती और न इससे बचाव के लिए कोई टीका बना है।  

चिकवी से संक्रमित मच्छर जब मनुष्य को काटता है तो वायरस उसके रक्त में पहुँच जाता है। वहां से वह कोशिकाओं के अंदर घुस जाता है जहाँ वह अपने लिए तो पोषण हासिल करता है लेकिन खुद ऐसे रसायन पैदा करता है जो मनुष्य के लिए बुखार, भीषण दर्द और बेचैनी का कारण बन जाते हैं। आज दुनिया भर में इसकी कोई प्रमाणित और लइसेंस-शुदा दवा नहीं है। केवल बुखार, दर्द, सूजन आदि कम करने वाली औषधियों से मरीज को राहत दिलाने की चेष्टा की जाती है। बहरहाल दुनियाभर में इस वायरस-जन्य बीमारी से निपटने के लिए दवा विकसित करने की मांग है। 

उल्लेखनीय है कि विश्व भर में कई दशकों से वायरस या बैक्टीरिया-जन्य लाइलाज बीमारियों से निपटने के लिए वानस्पतिक स्रोतों से मिलने वाले नए-नए जैव सक्रिय यौगिकों से नई-नई दवाएं विकसित करने के उपक्रम चल रहे हैं। इसके लिए पारम्परिक चिकित्सा साहित्य या जनजातियों में उपलब्ध जानकारी का इस्तेमाल किया जाता है। इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप पौधों से मिलने वाले प्राकृतिक उत्पादों से ऐसे अनेक यौगिक खोजे जा चुके हैं जिनका आधुनिक दवा उद्योग में जमकर इस्तेमाल हो रहा है। अनुमान है कि आज 40% आधुनिक दवाएं प्राकृतिक स्रोतों से मिले यौगिकों से बनती हैं। उन प्राकृतिक यौगिकों को संश्लेषित करने की विधियां भी ढूंढ़ ली गई हैं। 

प्राकृतिक तथ्य है कि हर वायरस की अपनी जिजीविषा होती है और वे देर-सबेर एंटीवायरल दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधिता विकसित कर लेते हैं और नतीजा यह कि प्रचलित दवाएं बेअसर होने लगती हैं। यही वजह है कि निरंतर नए प्रभावी यौगिकों की तलाश आज एक अनिवार्यता बन गई है। 

चिकवी वायरस से निपटने के लिए जब औषधि ढूढ़ने की बात आई तो भारत में आयुर्वेद और प्राचीन लोक औषधियों के साहित्य को खंगाला गया। पाया गया कि 'कालमेघ' नामक बूटी सूजन कम करने और बुखार उतारने में प्रयुक्त होती रही है। इसका पौधा पीले भूरे रंग का और बेहद कड़वा होता है। शरद ऋतु आने पर जमीन के ऊपर वाले हिस्से की कटाई कर ली जाती है जिसके आधार पर विभिन्न रोगों के लिए करीब 26 आयुर्वेदिक दवाइयां बनाई जा रही हैं। आधुनिक उन्नत प्रयोगशालों में किए गए विभिन्न परीक्षणों में पाया गया है कि इसका जैव-सक्रिय यौगिक 'एंड्रोग्रफोलॉइड' अनेक किस्म के वायरसों को मारने की क्षमता रखता है।  

चिकवी की दवा खोजने के क्रम में पहले के कुछ प्रयासों की चर्चा जरूरी है। वायरस की अनेक किस्में होती हैं जिनमें से चिकवी वायरस को अल्फा-वायरस प्रजाति में वर्गीकृत किया गया है। अल्फा-वायरस शरीर में  सूजन पैदा करने  और कार्टिलेज (लम्बी हड्डियों के सिरे पर मौजूद नरम ऊतक)  को क्षति पहुंचाने के लिए जाना जाता है। परीक्षणों में इस क्षति को रोकने में पेंटोसन पोलीसल्फेट नामक एक कार्बोहाइड्रेट आधारित पॉलिमर उपयोगी पाया जा चुका है।

इसी तरह पाया गया कि कृत्रिम माइक्रो-आरएनए के प्रयोग से चिकवी की प्रतिकृतियां बनाने से रोका जा सकता है। इसके अलावा वाइरस को कमजोर कर जब शरीर में प्रवेश कराया जाता है तो शरीर में उसके खिलाफ स्वतः रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाती है। इस आधार पर बने टीके भी आजमाए जा चुके हैं और पाया गया है कि इससे लघु और लम्बी अवधि के लिए बचाव संभव है। लेकिन हरेक में कुछ न कुछ समस्या है जिसकी वजह से चिकुनगुनिया के लिए अभी तक न कोई टीका विधिवत मंजूर हुआ है और न ही कोई दवा। इसलिए नए-नए परीक्षण और अनुसंधान जारी हैं। 

दिल्ली स्थित 'डिफेन्स इंस्टिट्यूटऑफ फिजियोलॉजी एन्ड अलाइड साइंसेज' में शोध अध्येता स्वाती गुप्ता, डॉ. लिली गंजू, डॉ. कमला प्रसाद मिश्रा और शशि बाला सिंह तथा ग्वालियर-स्थित 'डिफेंस रिसर्च एन्ड डेवलपमेंट एस्टैब्लिशमेंट' में पवन कुमार दास, मनमोहन परीदा की टीम ने कालमेघ बूटी से प्राप्त यौगिक 'एंड्रोग्रफोलाइड' का चिकुनगुनिया से संक्रमित कोशिकाओं पर परीक्षण किए तो इसे उन्होंने जादुई असर वाला पाया। उक्त वैज्ञानिकों की टीम ने पाया कि चूहों की संक्रमित कोशिकाओं पर इसका असर यह है कि जलन और बुखार पैदा करने वाले रसायनों का बनना काफी कम हो जाता है। जब इस यौगिक का असर मानव कोशिकाओं पर जांचा गया तो निष्कर्ष निकला कि वायरस की प्रतिकृतियां बननी कम हो गईं। यह भी देखा गया कि बैक्टीरिया और वायरसों से लड़ने वाली प्रतिरोधक  कोशिकाओं (इम्यून सेल्स) की संख्या बढ़ गई।  

उक्त वैज्ञानिकों ने पहली बार इस ज्ञात एंटी-वायरल यौगिक का जीवों (एल्बीनो चूहों के नवजात बच्चों) में भी परीक्षण किया और उस समूची प्रक्रिया का पता लगाया कि किस तरह यह शरीर को चिकवी वायरस से मुक्त कर देता है। आशाजनक बात यह कि यह यौगिक न केवल वायरस के जहरीले (टॉक्सिक) असर को कम करता है बल्कि रोगी में रोग प्रतिरोधक कोशिकाओं की संख्या बढाकर इस वायरस के खिलाफ लड़ने की क्षमता में वृद्धि कर देता है। माना जा सकता है कि इसके आधार पर बनी दवा न केवल रोगी को चिकुनगुनिया से मुक्त कर सकेगी बल्कि स्वस्थ व्यक्ति को दिए जाने पर संभवतः महामारी के दिनों में चिकवी संक्रमण से बचाव भी कर  सकेगी। 

लेकिन उक्त भारतीय वैज्ञानिकों का मानना है कि दवा के विधिवत विकास के लिए अभी अन्य जीवों पर इसके परीक्षण की जरूरत है। आधुनिक औषधि-विकास  पद्धति में दवा के क्लिनिकल परीक्षण मनुष्यों में भी किए जाते हैं। उक्त भारतीय अनुसंधान के बाद सम्भवतः इस दिशा में कार्यक्रम बनाए जाएंगे।  

(स्रोत: जर्नल ऑफ़ एप्लाइड माइक्रोबायोलॉजी; एशियन पैसिफिक जर्नल ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन)


Sunday, September 22, 2019

जुर्माना लगाकर प्लास्टिक के कहर से मुक्ति नहीं पाई जा सकती !







डॉ. नीलम महेंद्र 

वैसे तो विज्ञान के सहारे मनुष्य ने पाषाण युग से लेकर आज तक मानव जीवन सरल और सुगम करने के लिए एक बहुत लंबा सफर तय किया है। इस दौरान उसने एक से एक वो उपलब्धियाँ हासिल कीं जो अस्तित्व में आने से पहले केवल कल्पना लगती थीं फिर चाहे वो बिजली से चलने वाला बल्ब हो या टीवी, फोन, रेल, हवाईजहाज, कंप्यूटर, इंटरनेट कुछ भी हो ये सभी अविष्कार वर्तमान सभ्यता को एक नई ऊंचाई, एक नया आकाश देकर मानव के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव का कारण बने। 

1907 में जब पहली बार प्रयोगशाला में कृत्रिम "प्लास्टिक" की खोज हुई तो इसके आविष्कारक बकलैंड ने कहा था, "अगर मैं गलत नहीं हूँ तो मेरा ये अविष्कार एक नए भविष्य की रचना करेगा।" और ऐसा हुआ भी, उस वक्त प्रसिद्ध पत्रिका 'टाइम' ने अपने मुख्य पृष्ठ पर लियो बकलैंड की तसवीर छापी थी और उनकी फोटो के साथ लिखा था, "ये ना जलेगा और ना पिघलेगा।" 

और जब 80 के दशक में धीरे धीरे पॉलीथिन की थैलियों ने कपड़े के थैलों, जूट के बैग, कागज के लिफाफों की जगह लेनी शुरू की, हर आदमी मंत्र मुग्ध था। हर रंग में, हर नाप में, इससे बनी थैलियों में चाहे जितने वजन का सामान डाल लो, फटने का टेंशन नहीं । इनसे बने कप कटोरियों में जितनी गरम चाय कॉफी या सब्जी डाल लो, हाथ जलने या फैलने का डर नहीं। सामान ढोना है, खराब होने या भीगने से बचाना है, पन्नी है ना! बिजली के तार को छूना है, लेकिन बिजली के झटके से बचना है, प्लास्टिक की इंसुलेशन है ना! 

खुद वजन में बेहद हल्की परंतु वजन सहने की बेजोड़ क्षमता वाली एक ऐसी चीज हमारे हाथ लग गई थी जो लागभग हमारी हर मुश्किल का समाधान थी, हमारे हर सवाल का जवाब थी। यही नहीं, वो सस्ती सुंदर और टिकाऊ भी थी यानी कुल मिलाकर लाजवाब थी। 

लेकिन किसे पता था कि आधुनिक विज्ञान के एक वरदान के रूप में हमारे जीवन का हिस्सा बन जाने वाला यह प्लास्टिक एक दिन मानव जीवन ही नहीं सम्पूर्ण पर्यावरण के लिए भी बहुत बड़ा अभिशाप बन जाएगा। "यह न जलेगा, न पिघलेगा" जो इसका सबसे बड़ा गुण था, वही इसका सबसे बड़ा अवगुण बन जाएगा। 

जी हाँ आज जिन प्लास्टिक की थैलियों में हम बाजार से सामान लाकर आधे घंटे के इस्तेमाल के बाद ही फेंक देते हैं, उन्हें नष्ट होने में हज़ारों साल लग जाते हैं। इतना ही नहीं इस दौरान वो जहाँ भी रहें--मिट्टी में या पानी में, अपने विषैले तत्व आसपास के वातावरण में छोड़ती रहती हैं। 

नवीन शोधों में पर्यावरण और मानव जीवन को प्लास्टिक से होने वाले हानिकारक प्रभावों के सामने आने के बाद आज विश्व का लगभग हर देश इसके इस्तेमाल को सीमित करने की दिशा में कदम उठाने लगा है। भारत सरकार ने भी देशवासियों से सिंगल यूज़ प्लास्टिक यानी एक बार प्रयोग किए जाने वाले प्लास्टिक का उपयोग बन्द करने का आह्वान किया है। 

इससे पहले 2018 विश्व पर्यावरण दिवस की थीम " बीट प्लास्टिक पॉल्युशन" की मेजबानी करते हुए भी भारत ने विश्व समुदाय से सिंगल यूज़ प्लास्टिक से मुक्त होने की अपील की थी। लेकिन जिस प्रकार से आज प्लास्टिक हमारी दैनिक दिनचर्या का ही हिस्सा बन गया है, सिंगल यूज़ प्लास्टिक का उपयोग पूर्णतः बन्द हो जाना तब तक संभव नहीं है जब तक इसमें जनभागीदारी ना हो। 

क्योंकि आज मानव जीवन में प्लास्टिक की घुसपैठ कितनी ज्यादा है इस विषय पर "प्लास्टिक: अ टॉक्सिक लव स्टोरी" अर्थात प्लास्टिक, एक जहरीली प्रेम कथा, के द्वारा लेखिका सुजैन फ्रीनकेल ने बताने की कोशिश की है। 

इस किताब में उन्होंने अपने एक दिन की दिनचर्या के बारे में लिखा है कि वे 24 घंटे में ऐसी कितनी चीजों के संपर्क में आईं जो प्लास्टिक की बनी हुई थीं। इनमें प्लास्टिक के लाइट स्विच, टॉयलेट सीट, टूथब्रश, टूथपेस्ट ट्यूब जैसी 196 चीज़े थीं जबकि गैर प्लास्टिक चीजों की संख्या 102 थी। यानी स्थिति समझी जा सकती है। लेकिन जब हम जनभागीदारी की बात करते हैं तो जागरूकता एक अहम विषय बन जाता है। 

कानून द्वारा प्रतिबंधित करना या उपयोग करने पर जुर्माना लगाना इसका हल नहीं हो सकता। इसका हल है, लोगों का स्वेच्छा से इसका उपयोग न करना। यह तभी सम्भव होगा जब वो इसके प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभावों को समझेंगे और जानेंगे। अगर आप समझ रहे हैं कि यह एक असंभव लक्ष्य है तो आप गलत हैं। यह लक्ष्य मुश्किल हो सकता है लेकिन असम्भव नहीं। इसे साबित किया है हमारे ही देश के एक राज्य ने। जी हां सिक्किम में प्लास्टिक का इस्तेमाल करने पर जुर्माना नहीं लगाया गया। बल्कि उससे होने वाली बीमारियों के बारे में अवगत कराया गया और धीरे धीरे जब लोगों ने स्वेच्छा से इसका प्रयोग कम कर लिया तो राज्य में कानून बनाकर इसे प्रतिबंधित किया गया। और सिक्किम भारत का पहला राज्य बना जिसने प्लास्टिक से बनी डिस्पोजल बैग और सिंगल यूज़ प्लास्टिक की बोतलों पर बैन लगाया।

दरअसल प्लास्टिक के दो पक्ष हैं। एक वह जो हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से उपयोगी है तो उसका दूसरा पक्ष स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रदूषण फैलने वाला एक ऐसा हानिकारक तत्व जिसे रिसायकल करके दोबारा उपयोग में तो लाया जा सकता है लेकिन नष्ट नहीं किया जा सकता। अगर इसे नष्ट करने के लिए जलाया जाता है तो अत्यंत हानिकारक विषैले रसायनों को उत्सर्जित करता है, अगर मिट्टी में गाड़ा  जाता है तो हजारों हज़ारों साल यों ही दबा रहेगा अधिक से अधिक ताप से छोटे छोटे कणों में टूट जाएगा लेकिन पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होगा। 

अगर समुद्र में डाला जाए तो वहाँ भी केवल समय के साथ छोटे छोटे टुकड़ों में टूट कर पानी को प्रदूषित करता है। इसलिए विश्व भर में ऐसे प्लास्टिक के प्रयोग को कम करने की कोशिश की जा रही है जो दोबारा इस्तेमाल में नहीं आ सकता। वर्तमान में केवल उसी प्लास्टिक के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसे रिसायकल करके उपयोग में लाया जा सकता है । 

लेकिन अगर हम सोचते हैं कि इस तरह से पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंच रहा तो हम गलत हैं क्योंकि इसे रिसायकल करने के लिए इसे पहले पिघलाना पड़ता है और उसके बाद भी उससे वो ही चीज़ दोबारा नहीं बन सकती बल्कि उससे कम गुणवत्ता वाली वस्तु ही बन सकती है और इस पूरी प्रक्रिया में नए प्लास्टिक से एक नई वस्तु बनाने के मुकाबले उसे रिसायकल करने में 80% अधिक उर्जा का उपयोग होता है। साथ ही विषैले रसायनों की उत्पत्ति। 

किंतु बात केवल यहीं खत्म नहीं होती। अनेक रिसर्च में यह बात सामने आई है कि चाहे कोई भी प्लास्टिक हो वो अल्ट्रावॉयलेट किरणों के संपर्क में पिघलने लगता है। अमेरिका की स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भारत के अलावा चीन, अमेरिका, ब्राज़ील, इंडोनेशिया, केन्या, लेबनान, मेक्सिको और थाईलैंड में बेची जा रही 11 ब्रांडों की 250 बोतलों का परीक्षण किया। 2018 के इस अध्ययन के अनुसार बोतलबंद पानी के 90% नमूनों में प्लास्टिक के अवशेष पाए गए। सभी ब्रांडों के एक लीटर पानी में औसतन 325 प्लास्टिक के कण मिले। 

अपने भीतर संग्रहित जल को दूषित करने के अलावा एक बार इस्तेमाल हो जाने के बाद ये स्वयं कितने कचरे में तब्दील हो जाती हैं इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2016 में पूरी दुनिया में 480 अरब प्लास्टिक बोतलें खरीदी गईं। आकलन है कि दुनिया में हर मिनट 10 लाख प्लास्टिक बोतलें खरीदी जाती हैं जिनमें से 50% कचरा बन जाती हैं। 

हाल के कुछ सालों में सीरप, टॉनिक जैसी दवाइयाँ भी प्लास्टिक पैकिंग में बेची जाने लगी हैं क्योंकि एक तो यह शीशियों से सस्ती पड़ती हैं दूसरा टूटने का खतरा भी नहीं होता। लेकिन प्लास्टिक में स्टोर किए जाने के कारण इन दवाइयों के प्रतिकूल असर सामने आने लगे हैं। प्लास्टिक से होने वाले खतरों से जुड़ी चेतावनी जारी करते हुए वैज्ञानिकों ने बताया है कि प्लास्टिक की चीजों में रखे गए भोज्य पदार्थों से कैंसर और भ्रूण के विकास में बाधा संवत कई बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।

स्पष्ट है कि वर्तमान में जिस कृत्रिम प्लास्टिक का उपयोग हो रहा है वो अपने उत्पादन से लेकर इस्तेमाल तक सभी अवस्थाओं में पर्यावरण के लिए खतरनाक है। लेकिन जिस प्रकार से आज हमारी जीवनशैली प्लास्टिक की आदि हो चुकी है इससे छुटकारा पाना ना तो आसान है और ना ही यह इसका कोई व्यवहारिक हल है। इसे व्यवहारिक बनाने के लिए लोगों के सामने प्लास्टिक का एक बेहतर विकल्प प्रस्तुत करना होगा।

दरअसल समझने वाली बात यह है कि कृत्रिम प्लास्टिक बायो डिग्रेडेबल नहीं है इसलिए हानिकारक है लेकिन बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक भी बनाया जा सकता है। इसकी अनेक किस्में  हैं जैसे बायोपोल, बायोडिग्रेडेबल पॉलिएस्टर एकोलेक्स, एकोजेहआर आदि या फिर बायो प्लास्टिक जो शाकाहारी तेल, मक्का स्टार्च, मटर स्टार्च, जैसे जैव ईंधन स्रोतों से प्राप्त किया जा सकता है जो कचरे में सूर्य के प्रकाश, पानी,नमी, बैक्टेरिया,एंजायमों,वायु के घर्षण, और सड़न कीटों की मदद से 47 से 90 दिनों में खत्म होकर मिट्टी में घुल जाए लेकिन यह महंगा पड़ता है इसलिए कंपनियां इसे नहीं बनातीं। 

इसलिए सरकारों को सिंगल यूज़ प्लास्टिक ही नहीं बल्कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले हर प्रकार के नॉन बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक का उपयोग ही नहीं, निर्माण भी पूर्णतः प्रतिबंधित करके केवल बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक के निर्माण और उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए। इससे जब कपड़े अथवा जूट के थैलों और प्लास्टिक के थैलों की कीमत में होने वाली असमानता दूर होगी तो प्लास्टिक की कम कीमत के कारण उसके प्रति लोगों का आकर्षण भी कम होगा और उसका इस्तेमाल भी।

विश्व पर्यावरण संरक्षण मूलभूत ढाँचे में बदलाव किए बिना केवल जनांदोलन से हासिल करने की सरकारों की अपेक्षा एक अधूरी कोशिश है। इसे पूर्णतः तभी हासिल किया जा सकता है जब कि प्लास्टिक बनाने वाले उद्योग भी अपने कच्चे उत्पाद में बदलाव लाकर कृत्रिम प्लास्टिक बनाना ही बन्द कर दें और केवल बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक का ही निर्माण करें। 

अगर हमारी सरकारें प्लास्टिक के प्रयोग से पर्यावरण को होने वाले नुकसान से ईमानदारी से लड़ना चाहती हैं तो उन्हें हर प्रकार का वो प्लास्टिक जो बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए नष्ट नहीं होता है, उसके निर्माण पर औधोगिक प्रतिबंध लगाकर केवल बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक के निर्माण को बढ़ावा देना होगा न कि आमजन से उसका उपयोग नहीं करने की अपील।

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)



Thursday, June 27, 2019

मानव नस्ल सुधार का युग आ गया है !


विनोद वार्ष्णेय

वर्ष 2019 को इसलिए भी याद किया जाएगा कि इस साल विश्व में पहली बार दो डिजाइनर बेबीज का जन्म हुआ। ऐसा विश्व में पहली बार हुआ था कि चीन के एक वैज्ञानिक ने गर्भाधान से पहले न केवल जीन-स्तर पर भ्रूण की एडिटिंग की, बल्कि सफलतापूर्वक उस जीन-संशोधित भ्रूण से परखनली गर्भाधान (Invitro Fertilization) के जरिये शिशु भी पैदा कर दिखाए। और इस तरह ये शिशु विश्व की पहली ऐसी मानव-संतान बन गए जिनके जीन भ्रूण स्तर पर ही सम्पादित कर दुरुस्त कर दिए गए थे। 


'लूलू' और 'नाना' नाम की ये जुड़वां बच्चियां इस फरवरी को सात महीने की हो चुकी हैं और स्वस्थ हैं। उनका विकास सामान्य है। पर दुनिया के तमाम  जेनेटिक वैज्ञानिक ऐसा नहीं मानते। उन्हें चिंता सता रही है कि अवैध तरीके से पैदा की गईं इन बेबीज का आखिर हश्र क्या होगा। क्या ये सचमुच सामान्य रूप से बड़ी होंगी ? क्या ये किसी अजीबोगरीब बीमारी से ग्रस्त तो नहीं हो जाएंगी? क्या ये औसत उम्र तक जी पाएंगी ? ज्यादातर आनुवंशिक वैज्ञानिकों का मानना है कि जीन-एडिटिंग के फलस्वरूप पैदा हुई इन लड़कियों को अवांछित 'साइड-इफेक्ट्स' भुगतने पड़ेंगे।


तो कौन है यह दुष्ट वैज्ञानिक जिसने दो लड़कियां अवांछित 'साइड-इफेक्ट्स' भुगतने के लिए पैदा कर डालीं ? ये हैं अमेरिका की राइस यूनिवर्सिटी और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी  से शिक्षित और चीन की 'सदर्न यूनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एन्ड टेक्नोलॉजी' के बायोलॉजी विभाग में नियुक्त असोसिएट प्रोफेसर, 'हे जियानकुई'। अनुमान लगाया जा रहा है कि या तो उन्होंने वैज्ञानिक जिज्ञासा के तहत या  प्रसिद्ध होने और इतिहास में नाम कमाने की गरज से उक्त प्रयोग किया। जो भी मूल प्रेरणा रही हो, इसकी खबर मिलते ही विश्व के वैज्ञानिक जगत में भूकम्पीय तहलका मच गया। ज्यादातर वैज्ञानिकों ने 'जियानकुई' के दुस्साहस की कड़ी निंदा की और इसे मानवता के खिलाफ अपराध करार दिया। इसे विज्ञान के दुरुपयोग की संज्ञा दी गई। 


एक दूसरा नजरिया यह रहा कि यदि इंसान पर किया गया यह पहला प्रयोग सफल होता है तो इससे भविष्य में अधिक क्षमता-संपन्न , बुद्धिमान और रोग-मुक्त ‘सुपरमैन’ पैदा किये जा सकेंगे। उन्होंने इसे इस बात की उद्घोषणा माना कि जीन संशोधन के जरिये सचमुच में नस्ल-सुधार का युग अब आ चुका है।


इतिहास में नस्ल-सुधार के समर्थक अनेक राजनीतिक और वैज्ञानिक विचारक रहे हैं जिनके विचारों को लेकर भारी विवाद हुए हैं। अधिसंख्य समाज विज्ञानी और विचारक इसे समाज के लिए खतरनाक जोखिम मानते आए हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि जैसे ही 'एडिटेड जीन' वाली उक्त दो बच्चियों के जन्म की खबर उजागर हुई, अगले ही दिन से जेनेटिक वैज्ञानिकों की ओर से उक्त प्रयोग की भर्त्सना शुरू हो गई।


उक्त वैज्ञानिक ने  ‘क्रिस्पर’ नाम की जीन-एडिटिंग टेक्नोलॉजी के प्रयोग से उक्त करिश्मे को अंजाम दिया। उन्होंने बजाय कोई शर्म महसूस करने के अपनी सफलता का उल्लेख खासे गर्व से किया। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि जेनेटिक चिकित्सा का प्रयोग साल दर साल बढ़ता जा रहा है और इसे आधुनिक विज्ञान का अनूठा वरदान माना जाने लगा है। जेनेटिक चिकित्सा से सचमुच कई असाध्य बीमारियों के ठीक होने के दावे अनुसन्धान पत्रिकाओं में आते रहते हैं। लेकिन ये सब प्रयोग व्यक्ति में जन्म के बाद हुए हैं और अगर जेनेटिक चिकित्सा का कोई अनजाना साइड-इफ़ेक्ट होता भी है तो उसे केवल वह व्यक्ति ही भोगता है। लेकिन भ्रूण स्तर पर यदि कोई जेनेटिक हेरफेर कर दी जाए तो उसका लाभ, और अगर कोई नुक्सान है तो वह, पीढ़ी दर पीढ़ी चलेगा। 


इसीलिए जेनेटिक वैज्ञानिकों में यह सर्वसम्मति है कि जब तक किसी जीन के हेरफेर के नफ़ा-नुक्सान सबंधी सभी आयामों को जान-समझ न लिया जाए तब तक भ्रूण स्तर पर इस एडिटिंग टेक्नोलॉजी का कतई इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। पर उक्त चीनी वैज्ञानिक ने संभवतः इतिहास में नाम कमाने की लालसा से उक्त अनैतिक काम कर डाला।


पर जियानकुन खुद ऐसा नहीं मानते। वे दावा करते हैं कि उन्होंने यह काम सच्चे दिल से मानव हित में किया है। कहानी यह है कि एक पति-पत्नी युगल इस भय से औलाद नहीं कर रहा था  कि वे दोनों ही एचआईवी/एड्स संक्रमण से ग्रस्त थे। अगर वे सामान्य ढंग से सम्भोग के जरिये बच्चे पैदा करते तो बच्चों में भी  एचआईवी नामक वायरस अंतरित हो जाता जबकि जीन एडिटिंग करके जियानकुन ने उस जीन को ही हटा दिया जिसकी वजह से कोई व्यक्ति एचआईवी संक्रमण का शिकार होता है। इसलिए संशोधित जीन वाली ये लड़कियां इस वाइरस की आजीवन शिकार नहीं होंगी। 


कहने का तात्पर्य यह कि इस टेक्नोलॉजी से एचआईवी-ग्रस्त लोग भी स्वस्थ बच्चे पैदा कर सकते हैं। शायद बहुत लोगों को नहीं पता कि चीन में एचआईवी संक्रमण का काफी प्रकोप है और इस नाते यह टेक्नोलॉजी भावी पीढ़ी को एचआईवी /एड्स से बचा सकती है।     


पर ज्यादातर वैज्ञानिकों ने जियानकुन के उक्त तर्क को लचर  बताया और कहा कि जब एचआईवी/एड्स से निपटने के वैकल्पिक तरीके मौजूद हैं तो यह जोखिम भरा  प्रयोग करने की क्या जरूरत थी। ‘अगर उक्त जीन को हटा देने से बच्चों को किसी नई और अज्ञात बीमारी का जोखिम पैदा हो गया हो, तो उसका  जिम्मेवार कौन होगा?’  


इस तरह के कई वैज्ञानिक लेख छप चुके हैं जिनमें आशंका जताई गई है कि इस जीन को हटा  देने से व्यक्ति में अन्य वायरसों के संक्रमण का खतरा बढ़ सकता है। इस बात को बल देते हुए कुछ ही दिन पहले ‘एमआईटी टेक्नोलॉजी रिव्यू’ में  रिपोर्ट प्रकाशित हुई भी है कि जीन-संशोधित बच्चियां पूरा जीवन नहीं जी पाएंगी। यह निष्कर्ष इंग्लैंड में 4 लाख वॉलंटियरों के डीएनए संकलित कर बनाये गए जीन बैंक के विश्लेषण के आधार पर निकाला गया है।


इसके विपरीत एक प्रयोग में पाया गया कि चूहों में से उक्त जीन निकाल देने के बाद उनकी याददाश्त बढ़ गई। और इस आधार पर यह कयास लगाए जा रहे हैं कि ये जीन-एडिटेड बच्चियां अधिक बुद्धिमती हो सकती हैं। इसी साल फरवरी में इस जीन की एडिटिंग से मस्तिष्काघात (स्ट्रोक) की वजह से लुप्त हो चुकी याददाश्त बहाल होने की रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है। यह इस बात का सबूत भी है कि किसी एक विशेषता के लिए चिह्नित जीन, अन्य अनेक कामों या विशेषताओं के लिए भी जिम्मेदार होता है।    


पर विवाद दिलचस्प मोड़ लेता जा रहा है और पश्चिम के कई वैज्ञानिक यहाँ तक संदेह व्यक्त करने लगे हैं कि उक्त चीनी वैज्ञानिक की मंशा एचआईवी से निजात दिलाने की जगह अधिक बुद्धिमान बच्चे पैदा करने की रही होगी। यह भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि अगर अधिक बुद्धिमान बच्चे पैदा करने के इस तरीके पर लोगों का विश्वास होने लगा तो जीन-एडिटिंग-आधारित परखनली शिशु पैदा करने का कारोबार जोर-शोर से चल पड़ेगा।


बहरहाल विश्व भर में जिस तरह से उक्त प्रयोग की आलोचना  हुई, उसके मद्देनज़र चीनी विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने जियानकुन के प्रयोग को अनैतिक और वैज्ञानिक मानदंडों के खिलाफ करार देते हुए, उन्हें विश्वविद्यालय से बर्खास्त कर दिया। चर्चा यह भी है कि चीन में कुछ महीनों बाद आने वाले नए सिविल कोड में मानव-भ्रूण की जीन-एडिटिंग को बाकायदा गैरकानूनी घोषित किया जाएगा

(The article was first published in PRESSVANI, a Hindi Magazine)