Thursday, June 27, 2019

मानव नस्ल सुधार का युग आ गया है !


विनोद वार्ष्णेय

वर्ष 2019 को इसलिए भी याद किया जाएगा कि इस साल विश्व में पहली बार दो डिजाइनर बेबीज का जन्म हुआ। ऐसा विश्व में पहली बार हुआ था कि चीन के एक वैज्ञानिक ने गर्भाधान से पहले न केवल जीन-स्तर पर भ्रूण की एडिटिंग की, बल्कि सफलतापूर्वक उस जीन-संशोधित भ्रूण से परखनली गर्भाधान (Invitro Fertilization) के जरिये शिशु भी पैदा कर दिखाए। और इस तरह ये शिशु विश्व की पहली ऐसी मानव-संतान बन गए जिनके जीन भ्रूण स्तर पर ही सम्पादित कर दुरुस्त कर दिए गए थे। 


'लूलू' और 'नाना' नाम की ये जुड़वां बच्चियां इस फरवरी को सात महीने की हो चुकी हैं और स्वस्थ हैं। उनका विकास सामान्य है। पर दुनिया के तमाम  जेनेटिक वैज्ञानिक ऐसा नहीं मानते। उन्हें चिंता सता रही है कि अवैध तरीके से पैदा की गईं इन बेबीज का आखिर हश्र क्या होगा। क्या ये सचमुच सामान्य रूप से बड़ी होंगी ? क्या ये किसी अजीबोगरीब बीमारी से ग्रस्त तो नहीं हो जाएंगी? क्या ये औसत उम्र तक जी पाएंगी ? ज्यादातर आनुवंशिक वैज्ञानिकों का मानना है कि जीन-एडिटिंग के फलस्वरूप पैदा हुई इन लड़कियों को अवांछित 'साइड-इफेक्ट्स' भुगतने पड़ेंगे।


तो कौन है यह दुष्ट वैज्ञानिक जिसने दो लड़कियां अवांछित 'साइड-इफेक्ट्स' भुगतने के लिए पैदा कर डालीं ? ये हैं अमेरिका की राइस यूनिवर्सिटी और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी  से शिक्षित और चीन की 'सदर्न यूनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एन्ड टेक्नोलॉजी' के बायोलॉजी विभाग में नियुक्त असोसिएट प्रोफेसर, 'हे जियानकुई'। अनुमान लगाया जा रहा है कि या तो उन्होंने वैज्ञानिक जिज्ञासा के तहत या  प्रसिद्ध होने और इतिहास में नाम कमाने की गरज से उक्त प्रयोग किया। जो भी मूल प्रेरणा रही हो, इसकी खबर मिलते ही विश्व के वैज्ञानिक जगत में भूकम्पीय तहलका मच गया। ज्यादातर वैज्ञानिकों ने 'जियानकुई' के दुस्साहस की कड़ी निंदा की और इसे मानवता के खिलाफ अपराध करार दिया। इसे विज्ञान के दुरुपयोग की संज्ञा दी गई। 


एक दूसरा नजरिया यह रहा कि यदि इंसान पर किया गया यह पहला प्रयोग सफल होता है तो इससे भविष्य में अधिक क्षमता-संपन्न , बुद्धिमान और रोग-मुक्त ‘सुपरमैन’ पैदा किये जा सकेंगे। उन्होंने इसे इस बात की उद्घोषणा माना कि जीन संशोधन के जरिये सचमुच में नस्ल-सुधार का युग अब आ चुका है।


इतिहास में नस्ल-सुधार के समर्थक अनेक राजनीतिक और वैज्ञानिक विचारक रहे हैं जिनके विचारों को लेकर भारी विवाद हुए हैं। अधिसंख्य समाज विज्ञानी और विचारक इसे समाज के लिए खतरनाक जोखिम मानते आए हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि जैसे ही 'एडिटेड जीन' वाली उक्त दो बच्चियों के जन्म की खबर उजागर हुई, अगले ही दिन से जेनेटिक वैज्ञानिकों की ओर से उक्त प्रयोग की भर्त्सना शुरू हो गई।


उक्त वैज्ञानिक ने  ‘क्रिस्पर’ नाम की जीन-एडिटिंग टेक्नोलॉजी के प्रयोग से उक्त करिश्मे को अंजाम दिया। उन्होंने बजाय कोई शर्म महसूस करने के अपनी सफलता का उल्लेख खासे गर्व से किया। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि जेनेटिक चिकित्सा का प्रयोग साल दर साल बढ़ता जा रहा है और इसे आधुनिक विज्ञान का अनूठा वरदान माना जाने लगा है। जेनेटिक चिकित्सा से सचमुच कई असाध्य बीमारियों के ठीक होने के दावे अनुसन्धान पत्रिकाओं में आते रहते हैं। लेकिन ये सब प्रयोग व्यक्ति में जन्म के बाद हुए हैं और अगर जेनेटिक चिकित्सा का कोई अनजाना साइड-इफ़ेक्ट होता भी है तो उसे केवल वह व्यक्ति ही भोगता है। लेकिन भ्रूण स्तर पर यदि कोई जेनेटिक हेरफेर कर दी जाए तो उसका लाभ, और अगर कोई नुक्सान है तो वह, पीढ़ी दर पीढ़ी चलेगा। 


इसीलिए जेनेटिक वैज्ञानिकों में यह सर्वसम्मति है कि जब तक किसी जीन के हेरफेर के नफ़ा-नुक्सान सबंधी सभी आयामों को जान-समझ न लिया जाए तब तक भ्रूण स्तर पर इस एडिटिंग टेक्नोलॉजी का कतई इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। पर उक्त चीनी वैज्ञानिक ने संभवतः इतिहास में नाम कमाने की लालसा से उक्त अनैतिक काम कर डाला।


पर जियानकुन खुद ऐसा नहीं मानते। वे दावा करते हैं कि उन्होंने यह काम सच्चे दिल से मानव हित में किया है। कहानी यह है कि एक पति-पत्नी युगल इस भय से औलाद नहीं कर रहा था  कि वे दोनों ही एचआईवी/एड्स संक्रमण से ग्रस्त थे। अगर वे सामान्य ढंग से सम्भोग के जरिये बच्चे पैदा करते तो बच्चों में भी  एचआईवी नामक वायरस अंतरित हो जाता जबकि जीन एडिटिंग करके जियानकुन ने उस जीन को ही हटा दिया जिसकी वजह से कोई व्यक्ति एचआईवी संक्रमण का शिकार होता है। इसलिए संशोधित जीन वाली ये लड़कियां इस वाइरस की आजीवन शिकार नहीं होंगी। 


कहने का तात्पर्य यह कि इस टेक्नोलॉजी से एचआईवी-ग्रस्त लोग भी स्वस्थ बच्चे पैदा कर सकते हैं। शायद बहुत लोगों को नहीं पता कि चीन में एचआईवी संक्रमण का काफी प्रकोप है और इस नाते यह टेक्नोलॉजी भावी पीढ़ी को एचआईवी /एड्स से बचा सकती है।     


पर ज्यादातर वैज्ञानिकों ने जियानकुन के उक्त तर्क को लचर  बताया और कहा कि जब एचआईवी/एड्स से निपटने के वैकल्पिक तरीके मौजूद हैं तो यह जोखिम भरा  प्रयोग करने की क्या जरूरत थी। ‘अगर उक्त जीन को हटा देने से बच्चों को किसी नई और अज्ञात बीमारी का जोखिम पैदा हो गया हो, तो उसका  जिम्मेवार कौन होगा?’  


इस तरह के कई वैज्ञानिक लेख छप चुके हैं जिनमें आशंका जताई गई है कि इस जीन को हटा  देने से व्यक्ति में अन्य वायरसों के संक्रमण का खतरा बढ़ सकता है। इस बात को बल देते हुए कुछ ही दिन पहले ‘एमआईटी टेक्नोलॉजी रिव्यू’ में  रिपोर्ट प्रकाशित हुई भी है कि जीन-संशोधित बच्चियां पूरा जीवन नहीं जी पाएंगी। यह निष्कर्ष इंग्लैंड में 4 लाख वॉलंटियरों के डीएनए संकलित कर बनाये गए जीन बैंक के विश्लेषण के आधार पर निकाला गया है।


इसके विपरीत एक प्रयोग में पाया गया कि चूहों में से उक्त जीन निकाल देने के बाद उनकी याददाश्त बढ़ गई। और इस आधार पर यह कयास लगाए जा रहे हैं कि ये जीन-एडिटेड बच्चियां अधिक बुद्धिमती हो सकती हैं। इसी साल फरवरी में इस जीन की एडिटिंग से मस्तिष्काघात (स्ट्रोक) की वजह से लुप्त हो चुकी याददाश्त बहाल होने की रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है। यह इस बात का सबूत भी है कि किसी एक विशेषता के लिए चिह्नित जीन, अन्य अनेक कामों या विशेषताओं के लिए भी जिम्मेदार होता है।    


पर विवाद दिलचस्प मोड़ लेता जा रहा है और पश्चिम के कई वैज्ञानिक यहाँ तक संदेह व्यक्त करने लगे हैं कि उक्त चीनी वैज्ञानिक की मंशा एचआईवी से निजात दिलाने की जगह अधिक बुद्धिमान बच्चे पैदा करने की रही होगी। यह भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि अगर अधिक बुद्धिमान बच्चे पैदा करने के इस तरीके पर लोगों का विश्वास होने लगा तो जीन-एडिटिंग-आधारित परखनली शिशु पैदा करने का कारोबार जोर-शोर से चल पड़ेगा।


बहरहाल विश्व भर में जिस तरह से उक्त प्रयोग की आलोचना  हुई, उसके मद्देनज़र चीनी विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने जियानकुन के प्रयोग को अनैतिक और वैज्ञानिक मानदंडों के खिलाफ करार देते हुए, उन्हें विश्वविद्यालय से बर्खास्त कर दिया। चर्चा यह भी है कि चीन में कुछ महीनों बाद आने वाले नए सिविल कोड में मानव-भ्रूण की जीन-एडिटिंग को बाकायदा गैरकानूनी घोषित किया जाएगा

(The article was first published in PRESSVANI, a Hindi Magazine)