विनोद वार्ष्णेय
सामान्यतः, हर व्यक्ति एक शक्तिशाली प्रतिरक्षा प्रणाली से लैस होता है जो रोग पैदा करने वाले वायरसों और बैक्टीरिया से उसे बचाती है। बीमारियों से भरी दुनिया में जीवित रहना इसी से संभव होता है। फिर ऐसा क्या है कि 'सार्स-कोव-2' नामक वायरस से पैदा हुई बीमारी 'कोविड-19' से रक्षा नहीं हो पा रही। उससे होने वाली मौतें थमने का नाम नहीं ले रहीं। 212 देशों में इसका प्रकोप पहुँच चुका है। संक्रमित हो चुके लोगों का आंकड़ा पैंतालीस लाख और मरने वालों की संख्या तीन लाख से ऊपर पहुँच चुकी है। भारत में भी 53 दिनों के लॉक-डाउन के बावजूद संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस मामले में भारत चीन से आगे निकल गया है हालांकि मृत्यु दर चीन के मुकाबले कम है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था में इससे जो हड़कंप मचा है, उससे सभी चिंतित हैं। विश्व भर में करीब 3-5 ट्रिलियन डालर की क्षति पहुँचने की आशंका जताई जा रही है। ढाई माइक्रोन के इस वायरस का आतंक इतना कि विश्व की लगभग आठ अरब आबादी में से संभवतः 5 अरब आबादी को इसके भय से हफ़्तों घरों में कैद रहना पड़ा। इससे पूरी तरह निपटने में विज्ञान निरीह सा लगता है। यह इस बात को भी इंगित करता है कि जीव विज्ञान के रहस्यों को जानने-समझने के मामले में विज्ञान अभी बहुत पीछे है।
दवाएं और टीके विकसित करने के लिए विश्व भर की तमाम सक्षम प्रयोगशालाओं में अद्भुत होड़ मची है। ऐसी होड़ इससे पहले कभी नहीं देखी गई। जिज्ञासा यह भी है कि यदि भविष्य में 'कोई'.. 'कभी'… 'किसी' वायरस को जैविक हथियार के रूप में इस्तेमाल करे, तो हमारा मौजूदा विज्ञान उससे निपटने के उपाय कितनी जल्दी तैयार करके दे सकता है। रक्षा अनुसन्धान से जुड़े वैज्ञानिकों और शोध-नीति निर्माताओं का सपना है कि ऐसी वैज्ञानिक विधियां विकसित होनी चाहिए कि किसी भी नए वायरस से निपटने का इलाज एक महीने में निकल आए। पर, अभी तो हालत यह है कि नई दवा या टीका विकसित करने में वर्षों लग जाते हैं।
दिलचस्प बात यह कि प्रकृति तो हमारी मदद करती है। किसी भी वायरस का हमला होते ही शरीर की सहज रोग प्रतिरक्षा प्रणाली एक खास किस्म की प्रोटीन बनाने लगती है जिसे 'इम्यूनोग्लोब्युलिन' या 'एन्टीबॉडी' कहते हैं। लेकिन समस्या यह है कि यह चीज किसी नए वायरस के मामले में देर से बनना शुरू होती हैं क्योंकि शरीर को इसका कोई पूर्ववर्ती अनुभव नहीं होता और फिर बनती भी हैं तो जरूरी नहीं कि ये समुचित मात्रा में बनें। अगर ये एंटीबाडी अपेक्षित मात्रा में नहीं बन पाएं और वायरस खतरनाक किस्म का हो तो व्यक्ति यमदूत के हवाले हो जाता है। मौजूदा कोविड-19 के मामले में भी यही हो रहा है; और मौतों का सिलसिला थम नहीं रहा।
वैज्ञानिक जमात प्रकृति के रहस्यों को समझकर, उस ज्ञान को तार्किक ढंग से इस्तेमाल कर नए-नए हल खोज कर देती रहती है। इसी क्रम में अभी हाल में कुछ वैज्ञानिकों ने दावा किया कि मानव शरीर में बनने वाली ‘एंटीबाडी’ के आधार पर अपेक्षाकृत कम समय में दवाएं बनाई जा सकती हैं जो न केवल टीके की तरह काम कर सकती हैं बल्कि संक्रमित हो चुके व्यक्ति को भी फटाफट ठीक कर सकती हैं। एंटीबाडी की कार्यप्रणाली यह है कि वह पहले वायरस की पहचान कर लेती है और फिर उसकी मानव कोशिकाओं में घुसने (यानी संक्रमित करने) की क्षमता ख़त्म कर देती है। हल इतना आसान प्रतीत होता है, पर दिक्क्तें बहुत हैं।
‘एंटीबाडी’ हासिल करने के दो तरीके हैं--या तो शरीर इन्हें बनाकर दे या ये इन्हें किसी बाहरी स्रोत से हासिल किया जाए। प्लाज्मा चिकित्सा में 'एंटीबाडी' संक्रमण से उबर चुके मरीज के रक्त से हासिल की जाती हैं जो रक्त के प्लाज्मा (तरल हिस्से) में मौजूद होती हैं। प्लाज्मा से 'एंटीबाडी' हासिल कर कोविड-19 के अनेक गंभीर मरीजों को भारत सहित अनेक देशों में रोग-मुक्त किया जा चुका है। लेकिन इस चिकित्सा में कई खामियां भी हैं। एक यह कि सहज रूप से मानव रक्त में बन रही 'एंटीबॉडी' कई किस्म की होती हैं। प्लाज्मा में जलन और सूजन पैदा करने वाले और रक्त में थक्का जमाने वाले आदि कई किस्म के जैविक अणु भी होते हैं। इसलिए कुछेक मामलों में गंभीर हालत में पहुँच चुके मरीज को 'प्लाज्मा थेरैपी' से भी बचाना संभव नहीं होता। मुंबई के लीलावती अस्पताल में एक 53-वर्षीय मरीज के मामले में ऐसा हो भी चुका है। इसके अलावा महामारी के दिनों में मरीजों की विशाल संख्या देखते हुए समुचित मात्रा में प्लाज्मा हासिल करना कैसे संभव है !
इसलिए वैज्ञानिकों की दिलचस्पी इस बात में है कि जो एक सबसे उपयोगी एंटीबॉडी हो, उसका जेनेटिक इंजीनियरिंग से बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाए। खुशखबरी यह है कि दो देशों, नीदरलैंड और इजराइल, की प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिकों को उस विशिष्ट एंटीबाडी (मोनोक्लोनल एंटीबाडी) को बनाने में कामयाबी मिली है जो मौजूदा कोरोना वायरस की संक्रमित करने की क्षमता ख़त्म कर देती है। प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ‘नेचर कम्युनिकेशन्स' में नीदरलैंड की प्रयोगशाला की कामयाबी से जुड़ा शोधपत्र पिछले हफ्ते ही प्रकाशित हुआ है। इसके कुछ ही दिन बाद इजराइल के रक्षामंत्री नफ्ताली बेनिट ने भी अपने देश के सैनिक तंत्र से जुड़ी एक प्रयोगशाला, 'इंस्टिट्यूट फॉर बायोलॉजिकल रिसर्च' में हासिल इसी किस्म की कामयाबी की घोषणा की।
उक्त घोषणाओं के दो दिनों के अंदर भारत की ‘कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एन्ड इंडस्ट्रियल रिसर्च’ने भी अपने 'न्यू मिलेनियम इंडियन टेक्नोलॉजी लीडरशिप इनिशिएटिव' कार्यक्रम के तहत मोनोक्लोनल एंटीबाडी बनाने से जुड़ी एक परियोजना की जानकारी दी। इस परियोजना के तहत भारत में 'मोनोक्लोनल एंटीबाडी' बनाने की टेक्नोलॉजी विकसित करने के लिए अन्य देशों की ही तरह निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र की प्रयोगशालाएं मिलकर काम करेंगी। ‘नेशनल सेंटर फॉर सैल साइंसेज’ (पुणे), ‘इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ (इंदौर) और निजी क्षेत्र की 'पैड-ओमिक्स टेक्नोलॉजीज' को अनुसंधान और विकास का काम सौंपा गया है। देश की प्रमुख टीका निर्माता कंपनी 'भारत बायोटेक' इसमें अग्रणी मार्गदर्शक की भूमिका निभाएगी।
‘भारत बायोटेक’के चेयरमैन कृष्णा एल्ला का बयान है कि इस परियोजना पर तेजी से काम होगा जिससे अगले छह महीने में एंटीबाडी बनाने की स्वदेशी टेक्नोलॉजी विकसित हो सके। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि भारत में विकसित की जाने वाली टेक्नोलॉजी नीदरलैंड और इजराइल की टेक्नोलॉजी से भिन्न होगी। आम जानकारी है कि वायरस परिवर्तित (म्यूटेट) होता रहता है, इसलिए कोई गारंटी नहीं होती कि एक किस्म की एंटीबॉडी निरंतर विकसित हो रहे वायरस के परवर्ती रूपों से भी निपट ले। इसलिए लक्ष्य है कि भारतीय प्रयोगशालाएं विविध किस्म की मोनोक्लोनल एंटीबाडी का एक ऐसा मिश्रण (कॉकटेल) तैयार करें जो ‘सार्स-कोव-2’ के विविध किस्म के परिवर्तित रूपों के खिलाफ भी असरदार हों।
वायरस से होने वाली बीमारियों के बचाव के लिए सामान्यतः स्वीकार्य तरीका, टीका ही माना जाता है। पर, टीका स्वस्थ व्यक्ति के लिए होता है। इससे व्यक्ति को वायरस के किसी भावी हमले से सुरक्षा मिलती है। लेकिन रोगग्रस्त हो जाने पर इसकी उतनी उपयोगिता नहीं रह जाती। इसके अलावा उच्च रक्तचाप, मधुमेह या गुर्दे व सांस की समस्याओं से पीड़ित व्यक्तियों या वृध्द व्यक्तियों पर टीके का असर संदिग्ध रहता है। माना जा रहा है कि मोनोक्लोनल एंटीबाडी आधारित दवाएं इस किस्म के रोगियों में भी उपयोगी रहेंगी।
वैसे, मोनोक्लोनल एंटीबाडी आधारित चिकित्सा कोई एकदम नई या अनप्रयुक्त चीज नहीं है। रक्त और स्तन कैंसर में तो दो दशक से इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। न रुकने वाला रक्तस्राव कर देने वाले खतरनाक 'इबोला' वायरस के मामले में भी 'मोनोक्लोनल एंटीबाडी' आधारित दवाएं कामयाब सिद्ध हो चुकी हैं।
नीदरलैंड की यूट्रेक्ट यूनिवर्सिटी स्थित 'यूट्रेक्ट मॉलिक्युलर इम्यूनोलॉजी हब' में किए गए प्रयोगों से यह सामने आया है कि विकसित की गई मोनोक्लोनल एंटीबाडी न केवल कोविड -19, बल्कि कहीं अधिक घातक बीमारी 'सार्स' से निपटने में भी उतनी ही कारगर होगी।
लेकिन ये प्रायोगिक 'मोनोक्लोनल एंटीबाडी' चूहे से विकसित की गई है। यह अचरज की बात है कि मानव-सरीखी मोनोक्लोनल एंटीबॉडी का उत्पादन चूहे कर सकते हैं। वस्तुतः मानव मोनोक्लोनल एंटीबॉडी का उत्पादन दो तरीकों से किया जा सकता है। एक तरीका है, चूहे में मौजूद एंटीबाडी बनाने वाले जीन को हटाकर मानव-एंटीबाडी बनाने वाले जीन डाल दिए जाएं। दूसरा है, जंगली चूहे से एंटीबाडी बनाई जाए और बाद में उसे मानवीकृत रूप दे दिया जाए। मोनोक्लोनल एंटीबाडी चाहे मानवी हो या मानवीकृत, वह कितनी सुरक्षित है और कितनी प्रभावी है, उसकी जांच के लिए ट्रायल करने जरूरी होते हैं।
और यहाँ आकर इन्तजार लम्बा होता जाता है। कई बार तो इतनी देरी हो जाती है कि शंका होने लगती है कि उत्साहजनक वैज्ञानिक शोध की ख़बरें कहीं बढ़ाचढ़ाकर तो नहीं लिखी गई थीं।
(यह लेख पाक्षिक अखबार 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' के 16-05-2020 के अंक में प्रकाशित हो चुका है)
सामान्यतः, हर व्यक्ति एक शक्तिशाली प्रतिरक्षा प्रणाली से लैस होता है जो रोग पैदा करने वाले वायरसों और बैक्टीरिया से उसे बचाती है। बीमारियों से भरी दुनिया में जीवित रहना इसी से संभव होता है। फिर ऐसा क्या है कि 'सार्स-कोव-2' नामक वायरस से पैदा हुई बीमारी 'कोविड-19' से रक्षा नहीं हो पा रही। उससे होने वाली मौतें थमने का नाम नहीं ले रहीं। 212 देशों में इसका प्रकोप पहुँच चुका है। संक्रमित हो चुके लोगों का आंकड़ा पैंतालीस लाख और मरने वालों की संख्या तीन लाख से ऊपर पहुँच चुकी है। भारत में भी 53 दिनों के लॉक-डाउन के बावजूद संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस मामले में भारत चीन से आगे निकल गया है हालांकि मृत्यु दर चीन के मुकाबले कम है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था में इससे जो हड़कंप मचा है, उससे सभी चिंतित हैं। विश्व भर में करीब 3-5 ट्रिलियन डालर की क्षति पहुँचने की आशंका जताई जा रही है। ढाई माइक्रोन के इस वायरस का आतंक इतना कि विश्व की लगभग आठ अरब आबादी में से संभवतः 5 अरब आबादी को इसके भय से हफ़्तों घरों में कैद रहना पड़ा। इससे पूरी तरह निपटने में विज्ञान निरीह सा लगता है। यह इस बात को भी इंगित करता है कि जीव विज्ञान के रहस्यों को जानने-समझने के मामले में विज्ञान अभी बहुत पीछे है।
दवाएं और टीके विकसित करने के लिए विश्व भर की तमाम सक्षम प्रयोगशालाओं में अद्भुत होड़ मची है। ऐसी होड़ इससे पहले कभी नहीं देखी गई। जिज्ञासा यह भी है कि यदि भविष्य में 'कोई'.. 'कभी'… 'किसी' वायरस को जैविक हथियार के रूप में इस्तेमाल करे, तो हमारा मौजूदा विज्ञान उससे निपटने के उपाय कितनी जल्दी तैयार करके दे सकता है। रक्षा अनुसन्धान से जुड़े वैज्ञानिकों और शोध-नीति निर्माताओं का सपना है कि ऐसी वैज्ञानिक विधियां विकसित होनी चाहिए कि किसी भी नए वायरस से निपटने का इलाज एक महीने में निकल आए। पर, अभी तो हालत यह है कि नई दवा या टीका विकसित करने में वर्षों लग जाते हैं।
दिलचस्प बात यह कि प्रकृति तो हमारी मदद करती है। किसी भी वायरस का हमला होते ही शरीर की सहज रोग प्रतिरक्षा प्रणाली एक खास किस्म की प्रोटीन बनाने लगती है जिसे 'इम्यूनोग्लोब्युलिन' या 'एन्टीबॉडी' कहते हैं। लेकिन समस्या यह है कि यह चीज किसी नए वायरस के मामले में देर से बनना शुरू होती हैं क्योंकि शरीर को इसका कोई पूर्ववर्ती अनुभव नहीं होता और फिर बनती भी हैं तो जरूरी नहीं कि ये समुचित मात्रा में बनें। अगर ये एंटीबाडी अपेक्षित मात्रा में नहीं बन पाएं और वायरस खतरनाक किस्म का हो तो व्यक्ति यमदूत के हवाले हो जाता है। मौजूदा कोविड-19 के मामले में भी यही हो रहा है; और मौतों का सिलसिला थम नहीं रहा।
वैज्ञानिक जमात प्रकृति के रहस्यों को समझकर, उस ज्ञान को तार्किक ढंग से इस्तेमाल कर नए-नए हल खोज कर देती रहती है। इसी क्रम में अभी हाल में कुछ वैज्ञानिकों ने दावा किया कि मानव शरीर में बनने वाली ‘एंटीबाडी’ के आधार पर अपेक्षाकृत कम समय में दवाएं बनाई जा सकती हैं जो न केवल टीके की तरह काम कर सकती हैं बल्कि संक्रमित हो चुके व्यक्ति को भी फटाफट ठीक कर सकती हैं। एंटीबाडी की कार्यप्रणाली यह है कि वह पहले वायरस की पहचान कर लेती है और फिर उसकी मानव कोशिकाओं में घुसने (यानी संक्रमित करने) की क्षमता ख़त्म कर देती है। हल इतना आसान प्रतीत होता है, पर दिक्क्तें बहुत हैं।
‘एंटीबाडी’ हासिल करने के दो तरीके हैं--या तो शरीर इन्हें बनाकर दे या ये इन्हें किसी बाहरी स्रोत से हासिल किया जाए। प्लाज्मा चिकित्सा में 'एंटीबाडी' संक्रमण से उबर चुके मरीज के रक्त से हासिल की जाती हैं जो रक्त के प्लाज्मा (तरल हिस्से) में मौजूद होती हैं। प्लाज्मा से 'एंटीबाडी' हासिल कर कोविड-19 के अनेक गंभीर मरीजों को भारत सहित अनेक देशों में रोग-मुक्त किया जा चुका है। लेकिन इस चिकित्सा में कई खामियां भी हैं। एक यह कि सहज रूप से मानव रक्त में बन रही 'एंटीबॉडी' कई किस्म की होती हैं। प्लाज्मा में जलन और सूजन पैदा करने वाले और रक्त में थक्का जमाने वाले आदि कई किस्म के जैविक अणु भी होते हैं। इसलिए कुछेक मामलों में गंभीर हालत में पहुँच चुके मरीज को 'प्लाज्मा थेरैपी' से भी बचाना संभव नहीं होता। मुंबई के लीलावती अस्पताल में एक 53-वर्षीय मरीज के मामले में ऐसा हो भी चुका है। इसके अलावा महामारी के दिनों में मरीजों की विशाल संख्या देखते हुए समुचित मात्रा में प्लाज्मा हासिल करना कैसे संभव है !
इसलिए वैज्ञानिकों की दिलचस्पी इस बात में है कि जो एक सबसे उपयोगी एंटीबॉडी हो, उसका जेनेटिक इंजीनियरिंग से बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाए। खुशखबरी यह है कि दो देशों, नीदरलैंड और इजराइल, की प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिकों को उस विशिष्ट एंटीबाडी (मोनोक्लोनल एंटीबाडी) को बनाने में कामयाबी मिली है जो मौजूदा कोरोना वायरस की संक्रमित करने की क्षमता ख़त्म कर देती है। प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ‘नेचर कम्युनिकेशन्स' में नीदरलैंड की प्रयोगशाला की कामयाबी से जुड़ा शोधपत्र पिछले हफ्ते ही प्रकाशित हुआ है। इसके कुछ ही दिन बाद इजराइल के रक्षामंत्री नफ्ताली बेनिट ने भी अपने देश के सैनिक तंत्र से जुड़ी एक प्रयोगशाला, 'इंस्टिट्यूट फॉर बायोलॉजिकल रिसर्च' में हासिल इसी किस्म की कामयाबी की घोषणा की।
उक्त घोषणाओं के दो दिनों के अंदर भारत की ‘कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एन्ड इंडस्ट्रियल रिसर्च’ने भी अपने 'न्यू मिलेनियम इंडियन टेक्नोलॉजी लीडरशिप इनिशिएटिव' कार्यक्रम के तहत मोनोक्लोनल एंटीबाडी बनाने से जुड़ी एक परियोजना की जानकारी दी। इस परियोजना के तहत भारत में 'मोनोक्लोनल एंटीबाडी' बनाने की टेक्नोलॉजी विकसित करने के लिए अन्य देशों की ही तरह निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र की प्रयोगशालाएं मिलकर काम करेंगी। ‘नेशनल सेंटर फॉर सैल साइंसेज’ (पुणे), ‘इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ (इंदौर) और निजी क्षेत्र की 'पैड-ओमिक्स टेक्नोलॉजीज' को अनुसंधान और विकास का काम सौंपा गया है। देश की प्रमुख टीका निर्माता कंपनी 'भारत बायोटेक' इसमें अग्रणी मार्गदर्शक की भूमिका निभाएगी।
‘भारत बायोटेक’के चेयरमैन कृष्णा एल्ला का बयान है कि इस परियोजना पर तेजी से काम होगा जिससे अगले छह महीने में एंटीबाडी बनाने की स्वदेशी टेक्नोलॉजी विकसित हो सके। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि भारत में विकसित की जाने वाली टेक्नोलॉजी नीदरलैंड और इजराइल की टेक्नोलॉजी से भिन्न होगी। आम जानकारी है कि वायरस परिवर्तित (म्यूटेट) होता रहता है, इसलिए कोई गारंटी नहीं होती कि एक किस्म की एंटीबॉडी निरंतर विकसित हो रहे वायरस के परवर्ती रूपों से भी निपट ले। इसलिए लक्ष्य है कि भारतीय प्रयोगशालाएं विविध किस्म की मोनोक्लोनल एंटीबाडी का एक ऐसा मिश्रण (कॉकटेल) तैयार करें जो ‘सार्स-कोव-2’ के विविध किस्म के परिवर्तित रूपों के खिलाफ भी असरदार हों।
वायरस से होने वाली बीमारियों के बचाव के लिए सामान्यतः स्वीकार्य तरीका, टीका ही माना जाता है। पर, टीका स्वस्थ व्यक्ति के लिए होता है। इससे व्यक्ति को वायरस के किसी भावी हमले से सुरक्षा मिलती है। लेकिन रोगग्रस्त हो जाने पर इसकी उतनी उपयोगिता नहीं रह जाती। इसके अलावा उच्च रक्तचाप, मधुमेह या गुर्दे व सांस की समस्याओं से पीड़ित व्यक्तियों या वृध्द व्यक्तियों पर टीके का असर संदिग्ध रहता है। माना जा रहा है कि मोनोक्लोनल एंटीबाडी आधारित दवाएं इस किस्म के रोगियों में भी उपयोगी रहेंगी।
वैसे, मोनोक्लोनल एंटीबाडी आधारित चिकित्सा कोई एकदम नई या अनप्रयुक्त चीज नहीं है। रक्त और स्तन कैंसर में तो दो दशक से इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। न रुकने वाला रक्तस्राव कर देने वाले खतरनाक 'इबोला' वायरस के मामले में भी 'मोनोक्लोनल एंटीबाडी' आधारित दवाएं कामयाब सिद्ध हो चुकी हैं।
नीदरलैंड की यूट्रेक्ट यूनिवर्सिटी स्थित 'यूट्रेक्ट मॉलिक्युलर इम्यूनोलॉजी हब' में किए गए प्रयोगों से यह सामने आया है कि विकसित की गई मोनोक्लोनल एंटीबाडी न केवल कोविड -19, बल्कि कहीं अधिक घातक बीमारी 'सार्स' से निपटने में भी उतनी ही कारगर होगी।
लेकिन ये प्रायोगिक 'मोनोक्लोनल एंटीबाडी' चूहे से विकसित की गई है। यह अचरज की बात है कि मानव-सरीखी मोनोक्लोनल एंटीबॉडी का उत्पादन चूहे कर सकते हैं। वस्तुतः मानव मोनोक्लोनल एंटीबॉडी का उत्पादन दो तरीकों से किया जा सकता है। एक तरीका है, चूहे में मौजूद एंटीबाडी बनाने वाले जीन को हटाकर मानव-एंटीबाडी बनाने वाले जीन डाल दिए जाएं। दूसरा है, जंगली चूहे से एंटीबाडी बनाई जाए और बाद में उसे मानवीकृत रूप दे दिया जाए। मोनोक्लोनल एंटीबाडी चाहे मानवी हो या मानवीकृत, वह कितनी सुरक्षित है और कितनी प्रभावी है, उसकी जांच के लिए ट्रायल करने जरूरी होते हैं।
और यहाँ आकर इन्तजार लम्बा होता जाता है। कई बार तो इतनी देरी हो जाती है कि शंका होने लगती है कि उत्साहजनक वैज्ञानिक शोध की ख़बरें कहीं बढ़ाचढ़ाकर तो नहीं लिखी गई थीं।
(यह लेख पाक्षिक अखबार 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' के 16-05-2020 के अंक में प्रकाशित हो चुका है)