विनोद वार्ष्णेय
विश्व में अब हर रोज जितने नए कोविड केस सामने आ रहे हैं, वे अब तक के सर्वाधिक हैं। भारत में जरूर प्रकोप कुछ कम होता दिखाई दे रहा है लेकिन ठण्ड के मौसम, त्योहारों और चुनावों को देखते हुए अगले कुछ महीनों में क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
राहत की बात यह है कि बचाव के लिए दुनिया भर में कोविड के 179 टीकों पर काम चल रहा है। इनमें से 144 टीकों का परीक्षण चूहों, खरगोश आदि ऐसे जानवरों पर चल रहा है, जिनकी रोगरोधी क्षमता मानव सरीखी है या उनमें मानव जीन डालकर वैसी बना दी गई है। 35 टीके मानव परीक्षण के दौर में हैं। कुछ टीके दुर्बलीकृत कोरोनावायरस के आधार पर बनाए गए हैं तो कुछ में वायरस के केवल एक हिस्से, जैसे कि प्रोटीन, का इस्तेमाल किया गया है। एक अन्य किस्म के टीकों में कोरोनोवायरस की सतह पर मौजूद संक्रामक प्रोटीन को किसी अन्य ऐसे वायरस में स्थानांतरित किया गया है जो मानव के लिए निरापद हैं। तो कुछ टीकों में कोरोनावायरस की आनुवंशिक सामग्री के अवयवों का इस्तेमाल किया गया है। सबसे अधिक 77 टीके, वायरस की संक्रामक प्रोटीन के आधार पर बनाए गए हैं, 44 ऐसे हैं जो अन्य हानिरहित वायरसों के आधार पर बने हैं। 23 टीके सार्स-कोव-2 के आरएनए पर आधारित हैं। 18 टीके दुर्बलीकृत वायरस पर आधारित हैं और 16 कोरोना वायरस के प्लाज्मिड के आधार पर बनाए गए हैं।
रूस और चीन को है बड़ी जल्दी
पर विचित्र बात है कि चीन ने तीसरे चरण के परीक्षण के नतीजों का इन्तजार किए बिना ही दसियों हज़ार चीनी लोगों को टीके लगा दिए। सबसे पहले टीके सरकारी कंपनियों के कर्मचारियों, सरकारी अधिकारियों और टीका बनाने वाली कंपनियों के कर्मचारियों को लगाए गए। फिर अध्यापकों, सुपर मार्किट के कर्मचारियों और जोखिम वाली जगहों की यात्रा करने वालों को दिए गए। सरकार की ओर से दावा किया गया है कि ये टीके आपात इस्तेमाल के प्रावधानों के तहत लगाए गए हैं और इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन के सिद्धांतों का पालन किया गया है। चीन के फिलहाल चार टीके तीसरे चरण के मानव परीक्षण के दौर से गुजर रहे हैं। ज्यादातर परीक्षण अन्य देशों में चल रहे हैं क्योंकि चीन में संक्रमण थम चुका है और वहां परीक्षण संभव नहीं।
रूस ने भी बिना तीसरे चरण का मानव-परीक्षण किए अपने एक टीके 'स्पुतनिक-V' को पंजीकृत करा लिया। इसके विपरीत पश्चिमी देशों में विकसित किए जा रहे टीकों की वास्तविक बचाव क्षमता और उनके पूरी तरह सुरक्षित होने के सबूत मांगे जा रहे हैं और इस मुहिम के जवाब में अनेक टीका निर्माता कंपनियों को वायदा करना पड़ा है कि वे अपने टीके को पूरी तरह विज्ञान की कसौटी पर खरा सुनिश्चित करने के बाद ही लोगों के इस्तेमाल के लिए जारी करेंगे। याद रहे टीका कैसा है, यह जांचने के लिए ‘प्रोटोकॉल’ कंपनियां खुद तय करती हैं।
विशेषज्ञों और टीका-विकास में पारदर्शिता और नैतिकता के लिए आवाज उठाने वाले संगठनों की ओर से शोर अधिक होने पर सितम्बर के तीसरे सप्ताह में कंपनियों ने सार्वजनिक तौर पर अपने प्रोटोकॉल उजागर किए जिनके अनुसार अगर टीका हल्के लक्षण वाले मरीजों का ही जोखिम कम करता पाया जाएगा तो भी उस टीके को कामयाब मान लिया जाएगा चाहे मध्यम या गंभीर रोगियों को उससे कोई सुरक्षा न मिलती हो।
तुलना फ्लू के टीके से की जा रही है। बताया जा रहा है कि फ्लू का टीका भी हलके फ्लू पर ही असर करता है और इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि वह उम्र दराज लोगों को भी सुरक्षा प्रदान करता है। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध अब तक की जानकारी के अनुसार विकसित किए जा रहे कोविड-19 के टीकों की प्रभावशीलता फ्लू के टीकों की भाँति ही 50 प्रतिशत होगी। कोविड-19 के टीके के परीक्षण फिलहाल बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों पर नहीं किए जा रहे। केवल जॉनसन एंड जॉनसन ने ही पिछले हफ्ते उम्रदराज लोगों को अपने परीक्षण में शामिल किया है।
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्रा-जेनेका की साझेदारी के तहत विकसित ‘AZD1222’ से उम्मीद बन रही थी कि शायद सबसे पहले यही टीका बाजार में आएगा। इसके तीसरे चरण के मानव-परीक्षण के लिए अमेरिका में 30,000 वालंटियर भर्ती किए गए थे और ब्रिटेन में बड़े पैमाने पर तथा ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका में छोटे स्तर पर परीक्षण चल रहे थे। लेकिन उसे अचानक अपने तीसरे चरण का अपना परीक्षण कुछ समय के लिए रोकना पड़ा क्योंकि टीके के बाद एक महिला वालंटियर गंभीर रूप से स्नायुविक समस्या से ग्रस्त हो गई।
टीके की प्रभावशीलता और उसके सुरक्षित होने की गारंटी को लेकर विशेषज्ञों में चलती आ रही बहस का नतीजा यह हुआ कि ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ के सितंबर के पहले सप्ताह में किए गए एक सर्वे ने बताया कि 50 प्रतिशत अमरीकी ही टीका लगवाने को तैयार हैं जबकि चार महीने पहले इच्छुक लोगों की संख्या 73 प्रतिशत थी। अमेरिका में ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या है जो कहते हैं मुफ्त में मिले तब भी हम पहली पीढ़ी का टीका तो नहीं लगवाएंगे।
कपनियों को करना पड़ा लिखित वायदा
बहरहाल, कंपनियों और नियामक संस्थाओं की तरफ से टीके के प्रति अविश्वास की भावना खत्म करने के लिए कदम उठाए जाने शुरू हो गए हैं। चार बड़ी कंपनियों फ़ाइज़र, मॉडर्ना, एस्ट्रा-जेनेका और जॉनसन एन्ड जॉनसन ने सार्वजनिक तौर पर एक वचनपत्र पर हस्ताक्षर किए हैं कि वे उच्च नैतिक मानदंडों और ठोस वैज्ञानिक सिद्धांतों का पालन करेंगे और तब तक नियामक की मंजूरी नहीं मांगेंगे जब तक कि दसियों हज़ार लोगों में परीक्षण से यह सिद्ध नहीं हो जाएगा कि उनका टीका सचमुच प्रभावी और सुरक्षित है। बाद में ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन, मर्क, नोवावैक्स, बायो-एन टेक और सनोफी ने भी उस वचन पत्र पर हस्ताक्षर किए। भारत में भी कई कंपनियां टीके के विकास में लगी हैं। उनमें से भारत बायोटेक और जाइडस कैडिला इन दिनों दूसरे चरण के मानव परीक्षण कर रहीं हैं। इन्हें भी इस वचन पत्र पर हस्ताक्षर कर देने चाहिए। वे ऐसा क्यों नहीं करतीं ?
एक साहसिक कदम के तौर पर, अमेरिका के फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने भी राजनीतिक दबाव में न आकर एलान किया है कि टीके के आपात इस्तेमाल के लिए भी मंजूरी तब दी जाएगी जब टीका लगवाने वालों के दो महीने तक सुरक्षित रहने के दावे की जांच हो लेगी। उम्मीद की जा रही थी मानव परीक्षण के तीसरे चरण में चल रहे कई टीकों में से कम-से-कम मॉडर्ना का टीका अमेरिका में 3 नवम्बर को होने वाले चुनाव से पहले आ जाएगा। लेकिन उक्त ऐलान के बाद अब यह संभावना खत्म हो गई है।
असली तो होता है 'मानव चुनौती परीक्षण'
कोई टीका कितना सुरक्षित है और कितना प्रभावी, इसकी जांच का आखिरी तरीका है ह्यूमन चैलेंज ट्रायल (मानव चुनौती परीक्षण) हालांकि इसको लेकर कई विवाद हैं।
सबसे पहले 24 सितम्बर को इंग्लैंड ने एलान किया कि कोविड-19 के टीके का ‘मानव चुनौती परीक्षण’ किया जाएगा। इस परीक्षण में वालंटियर को पहले टीका लगाया जाएगा और इसके एक महीने के बाद उसे सार्स-कोव-2 वायरस से संक्रमित कर यह देखा जाएगा कि टीके ने सचमुच में उसे कितना बचाया।जाहिर है कि जो टीका मानव चुनौती परीक्षण में खरा उतरेगा, साख उसी टीके की बनेगी और सभी लोग उसे ही लगवाना चाहेंगे।
यह परीक्षण जनवरी में शुरू किया जाएगा और इसके लिए धन की व्यवस्था इंग्लैंड की सरकार करेगी। अमेरिका के एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) 'वनडे सूनर' के जरिए 2,000 वालंटियर इस जोखिम भरे परीक्षण के लिए अपना नाम दर्ज करा चुके हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नैतिक मानदंड तय किए हुए हैं कि वॉलंटियरों को 'मानव चुनौती परीक्षण' से जुड़े जोखिम के बारे में सही जानकारी देने के बाद ही उसमें भाग लेने के लिए उनकी स्वीकृति ली जाए।
आम तौर पर तीसरे दौर का मानव परीक्षण महंगा, परेशानीजदा और बहुत लम्बे समय में पूरा हो पाता है इसलिए जब समय कम हो और टीका पाने की जल्दी हो, तो सलाह दी जाती है कि तीसरे चरण के मानव परीक्षण की जगह सीधे-सीधे ‘मानव चुनौती परीक्षण’ किया जाए।
लेकिन नैतिकतावादी एक जायज सवाल उठाते हैं कि अगर टीका ठीक न हुआ तो वालंटियर गंभीर बीमारियों का शिकार हो सकता है, बल्कि उसकी मौत भी हो सकती है।
उधर, नैतिक सवाल यह भी है कि टीके के विकास में देरी के चलते विश्व भर में दसियों हज़ार लोग रोज मौत के शिकार हो रहे हैं और उसे रोकने के लिए क्या 'मानव परीक्षण चुनौती' का जोखिम नहीं उठाना चाहिए ?
मानव चुनौती परीक्षण अधिक विश्वसनीय आंकड़े देता है क्योंकि इसमें शोधकर्ताओं को पता रहता है कि वालंटियर को कब और कितनी मात्रा में संक्रमित किया गया था और टीके की कितनी डोज का उस पर कितने दिन में क्या असर हुआ। यह सब जानकारी टीके और संक्रमण के बारे में वैज्ञानिकों को प्रखर अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।
(This article was first published in mutilated form in 'Vaigyanik Drishtikon' on 16-10-2020)