Thursday, July 16, 2020

भारत में कोरोना के दो टीके 'कोवैक्सिन' और 'जाइकोव-डी' मानव परीक्षण के दौर में पहुंचे

विनोद वार्ष्णेय 

मौजूदा कोरोनावायरस ने जो अजीब माहौल बनाया है, उसमें बीमारी से ज्यादा सर्वव्यापी है, बीमारी का भय जो संक्रमित पाए जाने पर पृथकवास या अस्पताल जाने की मजबूरी, दवाओं की सफलता-असफलता की अनिश्चितता, ऑक्सीजन और वेंटीलेटर के बावजूद वैश्विक स्तर पर 7-8 प्रतिशत की मृत्यु दर से पैदा हुआ है। इस सबसे बजबजाता सवाल यह पैदा होता है कि क्या इस वायरस का कहर  ऐसे ही चलता रहेगा।  

फिर, पिछले हफ्ते ‘मेसाचुसैट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ के एक अध्ययन ने और डरा दिया कि यदि इस नए वायरस से निपटने की कोई दवा न निकली और न टीका ईजाद हुआ तो अगले साल मई में  दुनिया में सबसे अधिक कोरोना संक्रमण के मामले भारत में सामने आ रहे होंगे--हर दिन 2 लाख 87 हज़ार और तब तक विश्व में कोई 25 करोड़ लोग संक्रमण के दौर से गुजर चुके होंगे। यही नहीं, कोविड-19 से 18 लाख लोगों की मौत हो चुकी होगी। कौन इसे 'फेक न्यूज़' कहकर खारिज नहीं करना चाहेगा ! पर विश्व भर में जन-स्वास्थ्य से सरोकर रखने वाले लोगों ने इसे चुनौती के रूप में लिया है।  

यह दवा विकसित करने, और उससे कहीं ज्यादा, टीका विकसित करने के प्रयासों में परलक्षित है। ताजा जानकारी के अनुसार विश्व में अब तक पांच विभिन्न प्रणालियों के आधार पर 155 टीके बन चुके हैं जिनमें से 22 मानव परीक्षण के दौर में उतर चुके हैं। हर हफ्ते यह आंकड़ा बढ़ ही रहा है। संकल्पना के दौर से उठकर टीके के अभिकल्पित होने और प्रयोगशलाओं से गुजरते हुए मानव-परीक्षण के दौर तक आने में वैज्ञानिक ज्ञान, कौशल और विदग्धता की अहम भूमिका होती है। लेकिन वास्तव में जो टीका बना, वह काम करेगा या नहीं, कितने दिन के लिए प्रतिरक्षण देगा और कहीं यह कोई नुकसान तो नहीं पहुंचाएगा, इस सबका पता तो मानव परीक्षण से ही चलता है !  

इतिहास गवाह है कि बहुत कम टीके मानव परीक्षण में सफल हो पाते हैं।  वैक्सीन अलायन्स 'गैवी' के मुख्यकार्यकारी अधिकारी सैट बर्कले के अनुसार ज्यादातर टीके ‘फेल’ही होते हैं।  केवल 15-20 प्रतिशत टीके ही उस दौर में पहुंचते हैं कि उसे लोगों को दिया जा सके। चक्कर यह है कि हर नए टीके को आम इस्तेमाल के लिए जारी करने से पहले उसके तीन मानव परीक्षण जरूरी होते हैं जिनमें टीके को कई मानदंडों पर खरा उतरना होता है। सबसे अहम होता है कि क्या यह ‘सेफ’ है यानी यह शरीर में कोई नई स्वास्थ्य-समस्या तो पैदा नहीं करेगा ? दवाओं की बात अलग है, कोई नई दवा विकसित होती है तो वह बीमार व्यक्ति को ही दी जाती है, लेकिन टीका तो स्वस्थ व्यक्ति को दिया जाता है। खराब टीके के जरिए स्वस्थ व्यक्तियों को कोई नई स्वास्थ्य समस्या सौंप देना कोई भी उचित नहीं मानेगा। इसलिए परीक्षण के जरिए टीके का निरापद सिद्ध होना अनिवार्य माना जाता है।

टीके का दूसरा मानक होता है कि क्या वह सचमुच शरीर में रोग- प्रतिरक्षण पैदा करेगा। इसे मापने का जैव वैज्ञानिकों का तरीका है, यह देखना कि टीका लगाने के बाद वे प्रोटीन (एंटीबाडीज) पैदा हुए या नहीं जो वायरस का खात्मा करते हैं। बेशक, मानव-परीक्षण से पूर्व परखनली में कोशिकाओं पर और परीक्षण पशुओं (चूहे आदि) पर इसकी पुष्टि कर ली जाती है। पर जेनेटिक स्तर पर मानव बहुत भिन्न और विविध होता है, इसलिए यह सुनिश्चित करना बहुत जरूरी होता है कि क्या सचमुच में टीके का असर मानवों में भी वैसा ही होगा, जैसा कि पशुओं या कोशिकाओं में पाया गया था। हर व्यक्ति पर टीके का असर एक जैसा नहीं हो सकता क्योंकि आयु, लिंग, स्वास्थ्य का स्तर, पहले से चली आ रही बीमारियां, पहले लग चुके टीकों का असर जैसी अनेक भिन्नताएं टीके की प्रभावशीलता को प्रभावित करती हैं। टीके के मामले में मात्रा (डोज) और वह कब-कब कितनी बार दिया जाना है, यानी समयक्रम तय करने का भी सवाल होता है जिसे मानव-परीक्षण के जरिए ही तय किया जाता है। 

तीसरा मानक होता है, यह जानना कि टीके से प्रतिरक्षण कितने समय बाद पैदा हुआ और वह कितनी अवधि तक बना रहेगा। इन सबके अलावा परीक्षण के दौरान एक मसला 'क्रॉस-रिएक्टिविटी' का होता है जिसे आम भाषा में एलर्जी पैदा हो जाना भी कह सकते हैं। ‘क्रॉस-रिएक्टिविटी' की वजह से पैदा हुई रोग-प्रतिरोधिता वास्तविक लक्षित वायरस की जगह किसी मिलते-जुलते अन्य लक्ष्य पर ज्यादा प्रहार करती है जिससे टीके का असली मकसद ही ख़त्म हो जाता है। यही वजह है कि टीका विकास का काम काफी जटिल और समयसाध्य माना जाता है। इसमें कोई भी जल्दबाजी और लापरवाही अक्षम्य होनी चाहिए।

 'कोवैक्सिन' कोरोना की भारतीय नस्ल पर आधारित 

भारत का टीका उत्पादन के क्षेत्र में ख़ासा नाम है। देश में कई बीमारियों के टीकों के विकास पर काम चल रहा है। भारत में कोरोना वायरस के दस्तक देने के फ़ौरन बाद कोविड-19 का टीका विकसित करने का काम छह अलग-अलग संस्थानों-कम्पनियों ने शुरू कर दिया था जिनमें से दो टीकों--'कोवैक्सिन' और 'ज़ाइकोव-डी'--के मानव परीक्षण की अनुमति मिल चुकी है। इन दोनों ही कंपनियों को टीके के उत्पादन और विकास का ख़ासा अनुभव है। 'कोवैक्सिन' हैदराबाद की निजी क्षेत्र की कंपनी 'भारत बायोटेक' और पुणे स्थित सरकारी संस्थान ' नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी' ने मिलकर बनाया है। वायरस नए परिवेश में पहुँचने पर अक्सर कुछ बदल जाते हैं। इसलिए कोई जरूरी नहीं कि 10 जनवरी को जो कोरोनावायरस वुहान (चीन) में मिला था, हू-ब-हू वही इस समय भारत में फ़ैल रहा हो। पर नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी ने जो वायरस पृथक कर भारत बायोटेक को दिया है, वह एक भारतीय से निकाला गया है। इसका अर्थ है, इसके आधार पर विकसित टीका भारत में कहीं अधिक कामयाब होगा। 

'कोवैक्सिन'को निष्क्रिय वायरस के आधार पर बनाया गया है जो काफी पुरानी, सुरक्षित और प्रमाणित टेक्नोलॉजी मानी जाती है। जानकार लोगों के मुताबिक़ टीके में निष्क्रिय रैबीज वायरस में करोनावायरस की सतह से जुड़ी एक प्रोटीन डाली गई है जिससे शरीर की प्रतिरक्षण प्रणाली सक्रिय हो जाएगी। चूंकि भारत बायोटेक के पास रेबीज का टीका बनाने की बड़ी क्षमता है, इसलिए माना जा रहा है कि मानव परीक्षण में सफल होने के बाद इस टीके के बड़े पैमाने पर उत्पादन में विलम्ब नहीं होगा। 

'जाइडस कैडिला' अहमदाबाद स्थित निजी कंपनी है जिसके दो टीका विकास केंद्र हैं जिनमें से एक इटली में है। 'जाइडस कैडिला' चार तरह के टीके बनाने पर काम कर रहा था जिनमें से 'प्लाज्मिड-डीएनए' आधारित टीके को पशु-परीक्षण में काफी अच्छे नतीजे देने वाला पाया गया। प्लाज्मिड छोटा-सा डीएनए अणु होता है जो क्रोमोज़ोम के अतिरिक्त होता है। इसमें कुछ ही जीन होते हैं। कृत्रिम रूप से बनाए प्लाज्मिड का इस्तेमाल वाहक (vector) के रूप में किया जा सकता है। टीके के लिए प्लाज्मिड में कोरोना वायरस के भी कुछ चुनिंदा जीन डाल दिए जाते हैं। 

सेंट्रल ड्रग्स स्टैण्डर्ड कंट्रौल आर्गेनाईजेशन ने तीन जुलाई को इस जेनेटिक टीके के पहले और दूसरे चरण के मानव-परीक्षण की अनुमति दी थी। कंपनी की योजना है कि पहले चरण के बाद दूसरे चरण का परीक्षण तुरंत शुरू कर दिया जाए जिससे तीन महीने में दोनों परीक्षण पूरे हो जाएं। कयास लगाए जा रहे हैं कि यदि देश में कोरोना संक्रमण का प्रसार थमता नज़र नहीं आया तो आपातकाल मानकर भारत सरकार तीसरे चरण का मानव-परीक्षण किए बिना भी टीके के उत्पादन और इस्तेमाल की अनुमति दे सकती है। इस बात का अंदाजा इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के उस फरमान से भी मिलता है जिसमें कहा गया कि जनता के लिए टीका 15 अगस्त तक बन जाना चाहिए। बहरहाल, देश के अधिकाँश वैज्ञानिकों और संस्थानों ने इस समय सीमा को अव्यवहारिक और बेहूदा बताया। 

दस जुलाई को सांसद जयराम रमेश की अध्यक्षता में हुई विज्ञान सम्बन्धी संसदीय स्थायी समिति की बैठक में विज्ञान प्रौद्योगिकी विभाग, कौंसिल ऑफ़ साइंस एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च, जैव प्रौद्योगिकी विभाग के अधिकारियों के अलावा भारत सरकार के प्रधान विज्ञान सलाहकार के. विजय राघवन ने बताया कि टीका अगले साल के प्रारम्भ तक ही बाज़ार में आ सकता है (15 अगस्त तक नहीं)।  बैठक में यह भी जानकारी दी गई कि यह जरूरी नहीं कि यह टीका स्वदेशी ही हो। समय की जरूरत देखते हुए अन्यत्र विकसित हो रहे टीकों में से भी किसी का देश में उत्पादन शुरू हो सकता है।  

उल्लेखनीय है कि कम से कम तीन टीके--अमेरिकी कंपनी मोडर्ना का 'एम-आरएनए-1273', ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और स्वीडिश-ब्रिटिश कंपनी एस्ट्राजेनेका का 'ए जेड डी-12222' और चीनी कंपनी  सिनोवैक का 'कोरोनावैक'-- इन दिनों मानव-परीक्षण के तीसरे चरण में चल रहे हैं। इनके आलावा भी तीन और टीके इस दौर में प्रवेश करने वाले हैं। गौरतलब है कि तीसरे चरण की कामयाबी के बाद ही, जिसमें छह महीने लगते हैं, टीका-उत्पादन की अनुमति दी जाती है। आपातस्थिति की बात अलग है।  

(यह लेख हिंदी पाक्षिक 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' के 16 अप्रैल, 2020 के अंक में प्रकाशित हो चुका है)

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