विनोद वार्ष्णेय
कोरोना वायरस का प्रसार थमने का नाम नहीं ले रहा। दुनिया में इस लेख के लिखे जाने तक एक करोड़ से अधिक लोग संक्रमित पाए जा चुके हैं और इस नए दुश्मन से लड़ते हुए पांच लाख से ऊपर लोग जान गँवा चुके हैं। भारत में भी कुल संक्रमण के मामले छह लाख को पार कर चुके हैं और 17,800 लोग अपनी जान गँवा चुके हैं। यह संख्या बड़ी है, पर विशेषज्ञों का कहना है कि यह कम है क्योंकि गणना में वे लोग शामिल नहीं जिनका टेस्ट ही नहीं हुआ। भारत ही नहीं दुनिया भर में दसियों लाख लोग ऐसे हैं जिन्हें संक्रमण हुआ, पर उन्हें पता तक न चला। तो लाखों लोग ऐसे हैं जिन्हें संक्रमण हुआ, पर उसका असर इतना हलका था कि जब तक वे टेस्ट कराने की सोचते, तब तक वे ठीक भी हो गए।
पर चिंताजनक खबर यह है कि दुनिया में जैसे-जैसे 'लॉकडाउन' खोलकर कामकाज को पुराने ढर्रे पर लाने की अनुमति मिलने लगी है, संक्रमित लोगों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है। कई अनेक जगह जैसे चीन में, जहाँ इस पर काबू पा लिया गया था, फिर से मामले सामने आने लगे हैं। आखिर कब थमेगा यह सिलसिला? कब तक बनेगा इससे बचने के कारगर उपाय के रूप में टीका और वह टीका भी कितना असरदार होगा; उसका असर कब तक रहेगा और जैसी कि खबरें आई हैं कि कोरोना का यह मौजूदा वायरस 'म्यूटेट' हो रहा है यानी जेनेटिक स्तर पर बदल रहा है, तो क्या नए विकसित रूपों से भी टीका निपट पाएगा?
चिंता यह भी है कि जितनी संख्या में टीकों की जरूरत होगी, क्या उतने फटाफट बन पाएंगे? एक सवाल यह भी है कि उसकी कीमत क्या होगी और क्या आम लोग तक उसकी पहुंच होगी? खबरें आई हैं कि दुनिया का सबसे अमीर देश अमेरिका 'डॉलर' के बलबूते आने वाले टीकों पर अपना 'पहला' अधिकार बनाने का इंतजाम कर चुका है। उसके लिए इसका कोई मतलब नहीं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपील की थी कि टीका 'सार्वजनिक संपत्ति' होनी चाहिए। फ़िलहाल दुनिया में टीका-विकास के 129 प्रयास चल रहे हैं जिनमें से 12 मानव परीक्षण के दौर में हैं और अनुमान है कि साल के अंत तक आपद इस्तेमाल के लिए कोई-न-कोई टीका तैयार हो जाएगा। पर अभी तक केवल चीन ने घोषणा की है कि अगर उसका टीका तीसरे मानव परीक्षण में कामयाब होता है, तो वह सबके लिए उपलब्ध होगा यानी उस पर पेटेंट की बंदिश नहीं होगी। टीके की दौड़ में वह काफी आगे भी है। पर चूंकि चीन में पर्याप्त संख्या में अब संक्रमण नहीं हो रहा इसलिए वह मानव-परीक्षण के लिए ब्राज़ील, कनाडा आदि देशों पर निर्भर है।
पर टीके को लेकर असली चिंता यह है कि विश्व में जितने भी टीके इस समय विकसित किए जा रहे हैं, वे सब उस वायरस के आधार पर तैयार किए जा रहे हैं जो वुहान (चीन) से निकला था जिससे यह शंका स्वाभाविक रूप से उठती है कि क्या ये टीके 'म्यूटेट' हो रहे वायरस के खिलाफ सचमुच कामयाब होंगे। कोविड-19 की कोई सटीक दवा अभी नहीं और किसी नई दवा का ईजाद करना तो बहुत ही समयसाध्य होता है। फ़िलहाल पहले से इस्तेमाल हो रही दवाएं—चाहे वे पेट के कीड़े मारने वाली हों या एचआईवी/एड्स के खिलाफ एंटीवायरल दवाओं का मिश्रण हों या फ्लू की दवा हों या मलेरिया की या इबोला की या केवल स्टेरॉयड—हर किसी को आजमाया जा रहा है जो आंशिक रूप से ही सफल हो रही हैं।
इन सबकी तुलना में संक्रमण के बाद स्वस्थ हो चुके व्यक्ति के प्लाज्मा से हासिल एन्टीबॉडी के आधार पर चिकित्सा, अपेक्षाकृत अधिक सफल हो रही है।
एक बात गौरतलब है, बैक्टीरिया के संक्रमण से दवाएं आसानी से निपट लेती हैं, पर वैसा वायरस के मामले में नहीं होता। वायरस के मामले में 'ब्रॉड स्पेक्ट्रम' वाली बात भी नहीं होती कि एक ही दवा बहुत तरह के वायरसों से निपट ले। हर विशिष्ट वायरस के लिए एकदम अलग ही दवा खोजनी होती है।
पर संक्रमित व्यक्ति के रक्त में वायरस से लड़ने के लिए स्वाभाविक रूप से जो एन्टीबॉडी पैदा होती हैं, वे नई सटीक दवा विकसित करने के लिए उपयुक्त मूल सामग्री के रूप में इस्तेमाल हो सकती हैं। इसलिए बहुतेरे वैज्ञानिकों का मानना है कि मानव एन्टीबॉडी के आधार पर दवा विकसित करने की टेक्नोलॉजी विकसित करने पर ही सबसे अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे भविष्य में भी संभावित नए वायरसों से निपटना आसान होगा।
फ़िलहाल इलाज के लिए 'एन्टीबॉडी' की उपलब्धता प्लाज्मा के जरिए ही हो रही है। इसकी सफलता की खबरें अनेक देशों से आ रही हैं। इनमें हाल में दिल्ली के स्वास्थ्यमंत्री सत्येंद्र जैन की चिकित्सा का किस्सा भी जुड़ गया है। 55-वर्षीय मंत्री को अचानक तेज बुखार और सांस की तकलीफ हुई। कोरोना टेस्ट कराया तो रिपोर्ट 'नेगेटिव' थी यानी कोरोना का संक्रमण नहीं था। पर हालत बिगड़ती गई। दुबारा टेस्ट कराया तो टेस्ट 'पॉजिटिव' था यानी वे कोरोना से संक्रमित थे। तब तक उनके रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत घट गई और उन्हें आई.सी.यू. (गहन चिकित्सा कक्ष) में भेजना पड़ा। पर जब उनको कोरोना संक्रमण से स्वस्थ हो चुके एक वालंटियर का प्लाज़्मा चढ़ाया गया तो जादू की तरह 12 घंटे में उनका बुखार उतर गया, ऑक्सीजन देने की भी जरूरत नहीं रही और तीन दिन में तो वे यमदूत को 'टाटा' करके हॉस्पिटल से मुस्कराते हुए बाहर आ गए।
वे तो आम आदमी पार्टी के नेता थे। पर आम आदमी के लिए स्वस्थ हो चुके व्यक्तियों का प्लाज्मा हासिल करना आसान नहीं होता। इसकी किल्लत के चलते कुछ देशों में तो प्लाज्मा की कालाबाजारी शुरू हो चुकी है। लंदन के 'द गार्डियन' अखबार में छपी एक खबर के मुताबिक पाकिस्तान में तो प्लाज्मा की कीमत 3,800 ब्रिटिश पौंड (साढ़े तीन लाख रुपए) तक पहुँच चुकी है और किसी अमीर मरीज के अस्पताल में घुसते ही प्लाज्मा के दलाल चक्कर काटने लग जाते हैं। वहां इसे 'चमत्कारी' इलाज का दर्जा मिल चुका है।
उधर, अमेरिका सहित अनेक विकसित देशों में प्लाज्मा दान करने वाले वॉलंटियरों को खोजने और उन्हें पंजीकृत करने के लिए टेक्नोलॉजी की मदद ली जा रही है। माइक्रोसॉफ्ट ने इसके लिए एक ऍप भी जारी किया है और लोग स्वेच्छा से प्लाज्मा दान करने के लिए इसमें खुद को पंजीकृत करा रहे हैं।
दिल्ली में भारत का पहला प्लाज्मा बैंक खुल चुका है और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल स्वस्थ हो चुके लोगों से अपील कर रहे हैं कि वे प्लाज्मा दान करें। ऐसा करके वे लोगों की जान बचा सकते हैं। यह बड़ा पुण्य का काम होगा।
उधर, अनेक बायोटेक कम्पनियाँ भी अपने अनुसंधान के लिए 'प्लाज्मा' बटोरने में जुटी हैं और हजारों नमूनों में से यह खोज रही हैं कि रक्त में मौजूद तमाम तरह की ' एन्टीबॉडीज' में से आखिर कौन-सी ' एन्टीबॉडी' ऐसी है जो 'कोरोनावायरस' का सबसे प्रभावी ढंग से काम तमाम करती है। इस काम में दिलचस्पी रखने वाली अनेक निजी कंपनियों ने आपस में सहयोग करने के लिए ''कोव-आईजी-19' नाम से एक प्लाज्मा सहयोग समूह (अलायन्स) भी बना लिया है। 'बिल एन्ड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन' भी इसकी मदद कर रहा है।
इस अलायंस की एक भागीदार जापानी कंपनी 'ताकेदा फार्मास्युटिकल' की बात मानें तो मौजूदा प्रयासों के चलते कोई-न-कोई एन्टीबॉडी-आधारित दवा इस साल के अंत तक आ जानी चाहिए। इसके वैज्ञानिकों का दावा है कि वे ऐसी दवा बनाने की चेष्टा में हैं जो म्यूटेट हो चुके सभी वायरसों से निपट सके। उम्मीद जताई जा रही है कि इसको लेकर विश्वस्तरीय ट्रायल जुलाई में ही शुरू हो जाएगा और अगले साल जनवरी तक दवा बाजार में सुलभ होगी। आज ऐसी बायोटेक प्रविधियां मौजूद हैं ही, जिनसे किसी चुनिंदा ' एन्टीबॉडी' का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा सकता है।
इन सब प्रयासों के बीच सबसे दिलचस्प खबर यह है कि एक बायोटेक फर्म ने एक जीन-संशोधित (जेनेटिकली मॉडिफाइड) गाय से इंसानी 'एन्टीबॉडी' तैयार करके दिखाई है। ज्यादातर बायोटेक कंपनियां मोनोक्लोनल (एकल) एंटीबाडी तैयार करने में लगी हैं; पर गाय से जो एंटीबाडी मिलती है, उसका दर्जा 'पॉलीक्लोनल एंटीबाडी' का होता है। जहां मोनोक्लोनल एंटीबाडी वायरस के किसी एक भाग पर हमला करके उसका नाश करती है, वहीँ 'पॉलीक्लोनल एंटीबाडी' की खासियत होगी कि वह वायरस के विविध हिस्सों पर हमला कर सकेगी और उसके बचने का कोई रास्ता नहीं छोड़ेगी। इस काम से जुड़े वैज्ञानिक इसे अधिक प्रकृति-सम्मत तरीका मान रहे हैं। और सबसे बड़ी बात यह कि यह भविष्य में वायरस के म्यूटेट हो जाने पर भी असरदार बनी रह सकती है।
गाय को एन्टीबॉडी फैक्ट्री के रूप में इस्तेमाल करने का फायदा यह कि एक गाय हर महीने सैंकड़ों मरीजों के उपचार के लिए एन्टीबॉडी बनाकर दे सकती है। इस काम से जुड़ी कंपनी 'सैब बायोथेराप्यूटिक्स' के वैज्ञानिकों का दावा है कि परखनली अध्ययनों में इंसान से हासिल एन्टीबॉडी की तुलना में गाय से हासिल की गई एन्टीबॉडी चार गुना अधिक असरदार पाई गई है। पर कई वैज्ञानिक गाय से एन्टीबॉडी हासिल करने को सबसे अच्छी युक्ति नहीं मानते। उनकी पहली आपत्ति यह है कि सीधे किसी पशु से पैदा की गई एन्टीबॉडी आज तक किसी भी बीमारी के लिए स्वीकृत नहीं हुई।
पर इसके ठीक विपरीत सेंट लुई स्थित 'वाशिंगटन युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ़ मेडिसिन' के संक्रामक रोग विशेषज्ञ जेफ्री हैंडरसन का मानना है कि गाय से निर्मित एन्टीबॉडी तार्किक रूप से मानव एन्टीबॉडी का ही अगला विकासीय चरण है। इसके समर्थन में मजबूत वैज्ञानिक आधार भी है इसलिए इस दिशा में काम तेज किया जाना चाहिए।
(This article was first published in Hindi Newspaper 'Vaigyanik Drishtikon' on 01-07-2020. It has been mildly updated with a couple of new information.)
कोरोना वायरस का प्रसार थमने का नाम नहीं ले रहा। दुनिया में इस लेख के लिखे जाने तक एक करोड़ से अधिक लोग संक्रमित पाए जा चुके हैं और इस नए दुश्मन से लड़ते हुए पांच लाख से ऊपर लोग जान गँवा चुके हैं। भारत में भी कुल संक्रमण के मामले छह लाख को पार कर चुके हैं और 17,800 लोग अपनी जान गँवा चुके हैं। यह संख्या बड़ी है, पर विशेषज्ञों का कहना है कि यह कम है क्योंकि गणना में वे लोग शामिल नहीं जिनका टेस्ट ही नहीं हुआ। भारत ही नहीं दुनिया भर में दसियों लाख लोग ऐसे हैं जिन्हें संक्रमण हुआ, पर उन्हें पता तक न चला। तो लाखों लोग ऐसे हैं जिन्हें संक्रमण हुआ, पर उसका असर इतना हलका था कि जब तक वे टेस्ट कराने की सोचते, तब तक वे ठीक भी हो गए।
पर चिंताजनक खबर यह है कि दुनिया में जैसे-जैसे 'लॉकडाउन' खोलकर कामकाज को पुराने ढर्रे पर लाने की अनुमति मिलने लगी है, संक्रमित लोगों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है। कई अनेक जगह जैसे चीन में, जहाँ इस पर काबू पा लिया गया था, फिर से मामले सामने आने लगे हैं। आखिर कब थमेगा यह सिलसिला? कब तक बनेगा इससे बचने के कारगर उपाय के रूप में टीका और वह टीका भी कितना असरदार होगा; उसका असर कब तक रहेगा और जैसी कि खबरें आई हैं कि कोरोना का यह मौजूदा वायरस 'म्यूटेट' हो रहा है यानी जेनेटिक स्तर पर बदल रहा है, तो क्या नए विकसित रूपों से भी टीका निपट पाएगा?
चिंता यह भी है कि जितनी संख्या में टीकों की जरूरत होगी, क्या उतने फटाफट बन पाएंगे? एक सवाल यह भी है कि उसकी कीमत क्या होगी और क्या आम लोग तक उसकी पहुंच होगी? खबरें आई हैं कि दुनिया का सबसे अमीर देश अमेरिका 'डॉलर' के बलबूते आने वाले टीकों पर अपना 'पहला' अधिकार बनाने का इंतजाम कर चुका है। उसके लिए इसका कोई मतलब नहीं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपील की थी कि टीका 'सार्वजनिक संपत्ति' होनी चाहिए। फ़िलहाल दुनिया में टीका-विकास के 129 प्रयास चल रहे हैं जिनमें से 12 मानव परीक्षण के दौर में हैं और अनुमान है कि साल के अंत तक आपद इस्तेमाल के लिए कोई-न-कोई टीका तैयार हो जाएगा। पर अभी तक केवल चीन ने घोषणा की है कि अगर उसका टीका तीसरे मानव परीक्षण में कामयाब होता है, तो वह सबके लिए उपलब्ध होगा यानी उस पर पेटेंट की बंदिश नहीं होगी। टीके की दौड़ में वह काफी आगे भी है। पर चूंकि चीन में पर्याप्त संख्या में अब संक्रमण नहीं हो रहा इसलिए वह मानव-परीक्षण के लिए ब्राज़ील, कनाडा आदि देशों पर निर्भर है।
पर टीके को लेकर असली चिंता यह है कि विश्व में जितने भी टीके इस समय विकसित किए जा रहे हैं, वे सब उस वायरस के आधार पर तैयार किए जा रहे हैं जो वुहान (चीन) से निकला था जिससे यह शंका स्वाभाविक रूप से उठती है कि क्या ये टीके 'म्यूटेट' हो रहे वायरस के खिलाफ सचमुच कामयाब होंगे। कोविड-19 की कोई सटीक दवा अभी नहीं और किसी नई दवा का ईजाद करना तो बहुत ही समयसाध्य होता है। फ़िलहाल पहले से इस्तेमाल हो रही दवाएं—चाहे वे पेट के कीड़े मारने वाली हों या एचआईवी/एड्स के खिलाफ एंटीवायरल दवाओं का मिश्रण हों या फ्लू की दवा हों या मलेरिया की या इबोला की या केवल स्टेरॉयड—हर किसी को आजमाया जा रहा है जो आंशिक रूप से ही सफल हो रही हैं।
इन सबकी तुलना में संक्रमण के बाद स्वस्थ हो चुके व्यक्ति के प्लाज्मा से हासिल एन्टीबॉडी के आधार पर चिकित्सा, अपेक्षाकृत अधिक सफल हो रही है।
एक बात गौरतलब है, बैक्टीरिया के संक्रमण से दवाएं आसानी से निपट लेती हैं, पर वैसा वायरस के मामले में नहीं होता। वायरस के मामले में 'ब्रॉड स्पेक्ट्रम' वाली बात भी नहीं होती कि एक ही दवा बहुत तरह के वायरसों से निपट ले। हर विशिष्ट वायरस के लिए एकदम अलग ही दवा खोजनी होती है।
पर संक्रमित व्यक्ति के रक्त में वायरस से लड़ने के लिए स्वाभाविक रूप से जो एन्टीबॉडी पैदा होती हैं, वे नई सटीक दवा विकसित करने के लिए उपयुक्त मूल सामग्री के रूप में इस्तेमाल हो सकती हैं। इसलिए बहुतेरे वैज्ञानिकों का मानना है कि मानव एन्टीबॉडी के आधार पर दवा विकसित करने की टेक्नोलॉजी विकसित करने पर ही सबसे अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे भविष्य में भी संभावित नए वायरसों से निपटना आसान होगा।
फ़िलहाल इलाज के लिए 'एन्टीबॉडी' की उपलब्धता प्लाज्मा के जरिए ही हो रही है। इसकी सफलता की खबरें अनेक देशों से आ रही हैं। इनमें हाल में दिल्ली के स्वास्थ्यमंत्री सत्येंद्र जैन की चिकित्सा का किस्सा भी जुड़ गया है। 55-वर्षीय मंत्री को अचानक तेज बुखार और सांस की तकलीफ हुई। कोरोना टेस्ट कराया तो रिपोर्ट 'नेगेटिव' थी यानी कोरोना का संक्रमण नहीं था। पर हालत बिगड़ती गई। दुबारा टेस्ट कराया तो टेस्ट 'पॉजिटिव' था यानी वे कोरोना से संक्रमित थे। तब तक उनके रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत घट गई और उन्हें आई.सी.यू. (गहन चिकित्सा कक्ष) में भेजना पड़ा। पर जब उनको कोरोना संक्रमण से स्वस्थ हो चुके एक वालंटियर का प्लाज़्मा चढ़ाया गया तो जादू की तरह 12 घंटे में उनका बुखार उतर गया, ऑक्सीजन देने की भी जरूरत नहीं रही और तीन दिन में तो वे यमदूत को 'टाटा' करके हॉस्पिटल से मुस्कराते हुए बाहर आ गए।
वे तो आम आदमी पार्टी के नेता थे। पर आम आदमी के लिए स्वस्थ हो चुके व्यक्तियों का प्लाज्मा हासिल करना आसान नहीं होता। इसकी किल्लत के चलते कुछ देशों में तो प्लाज्मा की कालाबाजारी शुरू हो चुकी है। लंदन के 'द गार्डियन' अखबार में छपी एक खबर के मुताबिक पाकिस्तान में तो प्लाज्मा की कीमत 3,800 ब्रिटिश पौंड (साढ़े तीन लाख रुपए) तक पहुँच चुकी है और किसी अमीर मरीज के अस्पताल में घुसते ही प्लाज्मा के दलाल चक्कर काटने लग जाते हैं। वहां इसे 'चमत्कारी' इलाज का दर्जा मिल चुका है।
उधर, अमेरिका सहित अनेक विकसित देशों में प्लाज्मा दान करने वाले वॉलंटियरों को खोजने और उन्हें पंजीकृत करने के लिए टेक्नोलॉजी की मदद ली जा रही है। माइक्रोसॉफ्ट ने इसके लिए एक ऍप भी जारी किया है और लोग स्वेच्छा से प्लाज्मा दान करने के लिए इसमें खुद को पंजीकृत करा रहे हैं।
दिल्ली में भारत का पहला प्लाज्मा बैंक खुल चुका है और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल स्वस्थ हो चुके लोगों से अपील कर रहे हैं कि वे प्लाज्मा दान करें। ऐसा करके वे लोगों की जान बचा सकते हैं। यह बड़ा पुण्य का काम होगा।
उधर, अनेक बायोटेक कम्पनियाँ भी अपने अनुसंधान के लिए 'प्लाज्मा' बटोरने में जुटी हैं और हजारों नमूनों में से यह खोज रही हैं कि रक्त में मौजूद तमाम तरह की ' एन्टीबॉडीज' में से आखिर कौन-सी ' एन्टीबॉडी' ऐसी है जो 'कोरोनावायरस' का सबसे प्रभावी ढंग से काम तमाम करती है। इस काम में दिलचस्पी रखने वाली अनेक निजी कंपनियों ने आपस में सहयोग करने के लिए ''कोव-आईजी-19' नाम से एक प्लाज्मा सहयोग समूह (अलायन्स) भी बना लिया है। 'बिल एन्ड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन' भी इसकी मदद कर रहा है।
इस अलायंस की एक भागीदार जापानी कंपनी 'ताकेदा फार्मास्युटिकल' की बात मानें तो मौजूदा प्रयासों के चलते कोई-न-कोई एन्टीबॉडी-आधारित दवा इस साल के अंत तक आ जानी चाहिए। इसके वैज्ञानिकों का दावा है कि वे ऐसी दवा बनाने की चेष्टा में हैं जो म्यूटेट हो चुके सभी वायरसों से निपट सके। उम्मीद जताई जा रही है कि इसको लेकर विश्वस्तरीय ट्रायल जुलाई में ही शुरू हो जाएगा और अगले साल जनवरी तक दवा बाजार में सुलभ होगी। आज ऐसी बायोटेक प्रविधियां मौजूद हैं ही, जिनसे किसी चुनिंदा ' एन्टीबॉडी' का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा सकता है।
इन सब प्रयासों के बीच सबसे दिलचस्प खबर यह है कि एक बायोटेक फर्म ने एक जीन-संशोधित (जेनेटिकली मॉडिफाइड) गाय से इंसानी 'एन्टीबॉडी' तैयार करके दिखाई है। ज्यादातर बायोटेक कंपनियां मोनोक्लोनल (एकल) एंटीबाडी तैयार करने में लगी हैं; पर गाय से जो एंटीबाडी मिलती है, उसका दर्जा 'पॉलीक्लोनल एंटीबाडी' का होता है। जहां मोनोक्लोनल एंटीबाडी वायरस के किसी एक भाग पर हमला करके उसका नाश करती है, वहीँ 'पॉलीक्लोनल एंटीबाडी' की खासियत होगी कि वह वायरस के विविध हिस्सों पर हमला कर सकेगी और उसके बचने का कोई रास्ता नहीं छोड़ेगी। इस काम से जुड़े वैज्ञानिक इसे अधिक प्रकृति-सम्मत तरीका मान रहे हैं। और सबसे बड़ी बात यह कि यह भविष्य में वायरस के म्यूटेट हो जाने पर भी असरदार बनी रह सकती है।
गाय को एन्टीबॉडी फैक्ट्री के रूप में इस्तेमाल करने का फायदा यह कि एक गाय हर महीने सैंकड़ों मरीजों के उपचार के लिए एन्टीबॉडी बनाकर दे सकती है। इस काम से जुड़ी कंपनी 'सैब बायोथेराप्यूटिक्स' के वैज्ञानिकों का दावा है कि परखनली अध्ययनों में इंसान से हासिल एन्टीबॉडी की तुलना में गाय से हासिल की गई एन्टीबॉडी चार गुना अधिक असरदार पाई गई है। पर कई वैज्ञानिक गाय से एन्टीबॉडी हासिल करने को सबसे अच्छी युक्ति नहीं मानते। उनकी पहली आपत्ति यह है कि सीधे किसी पशु से पैदा की गई एन्टीबॉडी आज तक किसी भी बीमारी के लिए स्वीकृत नहीं हुई।
पर इसके ठीक विपरीत सेंट लुई स्थित 'वाशिंगटन युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ़ मेडिसिन' के संक्रामक रोग विशेषज्ञ जेफ्री हैंडरसन का मानना है कि गाय से निर्मित एन्टीबॉडी तार्किक रूप से मानव एन्टीबॉडी का ही अगला विकासीय चरण है। इसके समर्थन में मजबूत वैज्ञानिक आधार भी है इसलिए इस दिशा में काम तेज किया जाना चाहिए।
(This article was first published in Hindi Newspaper 'Vaigyanik Drishtikon' on 01-07-2020. It has been mildly updated with a couple of new information.)
This is a very hopeful sign. The information in the article give a sense of confidence that at least some reliable treatment will come by early next year.
ReplyDeleteगाय की बात तो बहुत बाद में आएगी, पहले आदमी की एंटीबॉडी वाली दवा तो बन जाए। देखते हैं कब तक कामयाबी मिलती है।
ReplyDeleteअब तक के सभी प्रयासों की अच्छी जानकारी।
ReplyDeleteVery useful knowledge good article hope we will get success Ham hongey kamyab ek din
ReplyDeleteThanks for this article