विनोद वार्ष्णेय
यह बहुत लोग जानते हैं कि 'सार्स-कोव-2' वायरस के शिकार बहुत से लोगों में छींकें, बुखार, गले में खराश, सिर या शरीर में दर्द,साँस लेने में तकलीफ, पेट ख़राब, अत्यधिक कमजोरी आदि कोविड-19 के कोई भी लक्षण नहीं उभरते । पर ऐसे लोग आम जनता में कितने प्रतिशत होते हैं ?
इस सवाल का जवाब दक्षिण कोरिया में हुए एक अध्ययन से मिला जो 'जर्नल ऑफ़ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन' में भी प्रकाशित हुआ। अध्ययन से उजागर हुआ कि ऐसे लोग 30 प्रतिशत होते हैं। हालांकि मशहूर अमेरिकी प्रतिरक्षा-विज्ञानी एंटनी फॉची मानते आए हैं कि ऐसे लोग 40 प्रतिशत हैं।
यह उच्च प्रतिशत आम लोगों के लिए संतोष की बात हो सकती है लेकिन इस महामारी का फैलाव रोकने में लगे विशेषज्ञों के लिए यह सबसे बड़ी चिंता का सबब है क्योंकि बिना लक्षण वाले संक्रमित लोग अपने आसपास के न जाने कितने लोगों को उसी तरह संक्रमित करते रहते हैं जैसे कि कोई लक्षणों वाला संक्रमित व्यक्ति।
वैज्ञानिक अध्ययन हैं कि बिना लक्षण वाले संक्रमित लोग कम-से-कम एक हफ्ते तक दूसरे लोगों को संक्रमण परोसते रहते हैं। उक्त दक्षिण कोरियाई अध्ययन के शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि बिना लक्षण वाले संक्रमित लोगों के नाक, गले या फेंफड़े में वायरस की मौजूदगी उतनी ही होती है जितनी कि लक्षण वाले संक्रमित लोगों में।
इस जानकारी का साफ़ सन्देश यह है कि जहां किसी बस्ती में एक भी संक्रमित व्यक्ति मिले, वहां हर व्यक्ति, चाहे वह बच्चा हो, बूढ़ा या जवान, सबका टेस्ट किया जाना चाहिए। अमेरिका सहित अनेक देशों में जब होटल, मॉल, बाजार, स्कूल-कॉलेज, थिएटर, सिनेमा हॉल, खेल के स्टेडियम आदि खोलने की मांग की जा रही है, तो वहां यह आवाज भी उठाई जा रही है कि इन भीड़-भाड़ वाली जगहों पर आने वाले हर व्यक्ति का टेस्ट किया जाए; जिसको संक्रमित पाया जाए, उसे वापस भेज दिया जाए और हर तीन चार दिन बाद टेस्ट दोहराया जाए।
लेकिन क्या हर व्यक्ति का टेस्ट करना संभव है ? खासतौर से तब, जब जमीनी हकीकत यह हो कि अमेरिका जैसे सुविधासम्पन्न देश में भी टेस्ट की सुविधाएं बहुत होते हुए भी, इतनी कम हैं कि टेस्ट-रिपोर्ट बहुत देर में, कहीं-कहीं तो सात से दस दिन बाद मिल पाती हैं।
इसकी बड़ी वजह यह बताई जाती है कि अमेरिका में कोरोनावायरस की जांच ज्यादातर ‘आरटी-पीसीआर’ (रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन-पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन) विधि से की जाती है, जो न केवल महंगी विधि है, बल्कि अधिक समय भी लेती है।
भारत में अधिसंख्य लोगों का ‘आरटी-पीसीआर’ टेस्ट हो जाए, यह तो फ़िलहाल संभव ही नहीं। लेकिन, यह पता करने के लिए कि कौन व्यक्ति संक्रमित है, अभी तक आदर्श टेस्ट 'आरटी-पीसीआर' को ही माना जाता है। इस पद्धति का आविष्कार अमेरिकी वैज्ञानिक मूलिस ने 1985 में किया था और इसके लिए उन्हें 1993 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया था।
इस विधि की खासियत है कि संक्रमण की प्रारंभिक अवस्था में भी जब नाक या गले से लिए गए नमूने में वायरस की संख्या बहुत कम होती है, वायरस के डीएनए की मौजूदगी का पता लग जाता है क्योंकि इस विधि में टेस्ट से पहले डीएनए की अरबों प्रतियां बना ली जाती हैं।
ज्ञात रहे कि कोरोनावायरस में केवल ‘आरएनए’ होता है जिसे टेस्ट से पहले ‘डीएनए’ में बदलना जरूरी होता है। इस प्रक्रिया को 'रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन' कहते हैं। जेनेटिक सामग्री की मात्रा बढ़ाने की गरज से ऐसा करना जरूरी होता है क्योंकि प्रतिलिपियाँ केवल डीएनए (डीऑक्सीराइबो नुक्लिइक एसिड) की ही बनाई जा सकती हैं, आरएनए (राइबो नुक्लिइक एसिड) की नहीं।
टेस्ट के लिए नाक या गले से स्राव का नमूना लेते हैं। इस नमूने में से पहले रासायनिक प्रक्रियाओं के जरिए प्रोटीन और वसा आदि जैसी फालतू चीजें हटा दी जाती हैं और फिर ‘आरएनए’ अलग कर लिया जाता है। इसके बाद एक विशिष्ट एंजाइम का उपयोग करके इसे ‘डीएनए’में बदल देते हैं। इस सबके लिए उन्नत किस्म की मशीनों और रेजंट (अभिकर्मक रसायन) के अलावा प्रशिक्षित व्यक्ति की भी जरूरत होती है। इसलिए यह टेस्ट काफी महंगा होता है।
भारत में एक समय था जब प्रयोगशालाएं इस टेस्ट के अनाब-शनाब दाम वसूल रही थीं तो इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने इसकी कीमत पर 4,500 रुपये की सीमा लगा दी। भारत में अब इस टेस्ट के लिए 190 से अधिक देशी-विदेशी कंपनियों के किट मंजूर किए जा चुके हैं और टेस्ट की कीमत लगभग आधी हो चुकी है। कीमत कम करने में भारतीय वैज्ञानिकों की भी भूमिका रही है। मसलन, श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंसेज एन्ड टेक्नोलॉजी (त्रिवेंद्रम) ने जांच नमूने में से ‘आरएनए’ निकालने की स्वदेशी किट विकसित की ,जो आयातित किट से बहुत सस्ती है।
इसके अलावा आईआईटी-दिल्ली के 'कुसुम स्कूल ऑफ़ बायोलॉजिकल साइंसेज' के शोधकर्ताओं ने 'कोरोश्योर' नाम की अपनी 'आरटी-पीसीआर' किट विकसित की है जो दुनिया की सबसे सस्ती किट है। एक कंपनी ने तो इसकी कीमत 499 रुपए घोषित भी कर दी है। यह टेक्नोलॉजी किट-उत्पादन के लिए 10 कंपनियों को हस्तांतरित की जा रही है।
जारी हैं ‘आरटी-पीसीआर टेस्ट’ को सस्ता करने की कोशिशें
महामारी के दौर में जांच की भारी मांग को देखते हुए ‘आरटी-पीसीआर टेस्ट’ को सस्ता , त्वरित और आसान बनाने के लिए विश्व की अनेक प्रयोगशालाओं में प्रयास चलते रहे हैं जिनके फलस्वरूप कई नई विधियां सामने आई हैं मसलन डीएनए की मात्रा बढ़ाने के लिए एक नई विधि ईजाद हुई है जिसका नाम है ‘आरटी-लैंप’ (रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन-लूप मीडिएटेड आइसोथर्मल एम्प्लिफिकेशन)। इसके आधार पर किए गए टेस्ट परंपरागत ‘आरटी-पीसीआर’जितने ही सटीक नतीजे देते हैं, पर ‘डीएनए’ के प्रतिलिपिकरण के लिए महँगी प्रक्रियाओं से निजात मिल जाती है और टेस्ट का काम जल्दी, लगभग आधे समय में पूरा हो जाता है।
भारत में ‘इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंटीग्रेटिव मेडिसिन’ (जम्मू) ने अपने बलबूते इस नई टेक्नोलॉजी ‘आरटी-लैंप’ का विकास करने में कामयाबी हासिल की। इस नई टेक्नोलॉजी पर आधारित किट के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए रिलायंस इंडस्ट्रीज से करार किया गया है। उम्मीद की जा रही है कि यह किट 200 रुपए के आसपास सुलभ होगी और जांच रिपोर्ट एक घंटे में मिल जाया करेगी। चूंकि इसके लिए उन्नत प्रयोगशालाओं की जरूरत नहीं, इसलिए गाँवों और दूरदराज के इलाकों में भी ये उच्च कोटि के टेस्ट किए जा सकेंगे।
पर यह अभी कुछ हफ़्तों बाद संभव होगा। फिलहाल तो भारत सहित दुनिया भर में बड़े पैमाने पर टेस्टिंग के लिए जो विधि इस्तेमाल की जा रही है, वह है 'रैपिड एंटीजन टेस्ट'। इस टेस्ट में 'डीएनए' की जगह वायरस की संक्रामक प्रोटीन की पहचान की जाती है। इस टेस्ट के लिए किसी प्रयोगशाला की जरूरत नहीं होती और इसका नतीजा 20 मिनट में मिल जाता है, बेशक वे कुछ कम विश्वसनीय होते हैं।
संक्रमण शुरू होने के साढ़े चार महीने बाद
मिली 'एंटीजन टेस्ट' को मंजूरी
भारत में पहला संक्रमण 30 जनवरी को सामने आया था। शुरू में संक्रमण फैलाव की दर बहुत कम थी लेकिन जब 'हॉट-स्पॉट' की संख्या बढ़ने लगी, तब इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने 15 जून को 'रैपिड एंटीजन टेस्ट' के पहले किट को मंजूरी दी जो दक्षिण कोरिया की एक कंपनी 'एसडी बायो सेंसर' ने विकसित की थी लेकिन जिसका उत्पादन मानेसर (गुरुग्राम) में होता था।
'एंटीजन टेस्ट' की 'सेंसिटिविटी' (सुग्राहिता) कम होती है, महज 50 से लेकर 84 प्रतिशत। इसलिए यह विधि कई बार संक्रमित लोगों को भी संक्रमण-मुक्त बता देती है। इसलिए इसके इस्तेमाल को लेकर बहुत विवाद पैदा हुए और एक याचिका के जरिए इसके इस्तेमाल को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गई।
लेकिन इस टेस्ट का इस्तेमाल कन्टेनमेंट जोन और उन इलाकों में बहुत फायदेमंद रहा जो संक्रमण के 'हॉट स्पॉट' बन चुके थे और जहाँ संक्रमित व्यक्तियों के संपर्क में आए बहुत बड़ी संख्या में लोगों के टेस्ट करने की जरूरत महसूस की जा रही थी। कम सुग्राही होने के बावजूद इससे बिना लक्षण वाले संक्रमित लोगों की तेजी से पहचान की जा सकी। अब अमेरिका में भी जहाँ विश्व में सबसे अधिक लोग (लेख लिखे जाने तक 55 लाख) संक्रमित हुए हैं, महामारी विशेषज्ञ इस टेस्ट को अधिकाधिक अपनाने के लिए जोर डाल रहे हैं।
जानने वाली बात यह है कि बेशक यह टेस्ट 'फाल्स नेगेटिव' रिपोर्ट देने के लिए बदनाम है, पर इसकी 'स्पेसिफिसिटी' (ट्रू पॉजिटिव देने की क्षमता) बहुत अच्छी है यानी यह अगर वह किसी व्यक्ति को संक्रमित बता दे तो वह फिर 98-99 प्रतिशत तक मामलों में संक्रमित ही निकलता है।
टेस्ट की 'सेंसिटिविटी' नमूने में उपलब्ध संक्रमणकारी प्रोटीन की मात्रा पर निर्भर करती है--यदि प्रोटीन बहुत कम हो तो 'एंटीजन टेस्टिंग किट' उसे खोज नहीं पाती। पीसीआर टेस्ट में जिस तरह जांच की सटीकता बढ़ाने के लिये डीएनए अणुओं की संख्या बढ़ाई जाती है, उस तरह एंटीजन टेस्ट में एंटीजन की मात्रा बढ़ाने का कोई प्रावधान नहीं।
पर इस टेस्ट की लागत सिर्फ 20 रुपए है, और यह आधे घंटे में नतीजा दे देती है। इस टेक्नोलॉजी की स्वदेशी टेस्ट किट भी विकसित की जा चुकी है और पुणे स्थित एक भारतीय कम्पनी 'मायलैब्स' इसका उत्पादन कर रही है।
'लॉकडाउन' में टेस्ट करने की जरूरत बढ़ गई
भारत में 24 मार्च तक संक्रमित व्यक्तियों की संख्या 564 और उससे होने वाली मौतें 12 हो गईं तो अप्रत्याशित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21 दिन के देशव्यापी 'लॉक डाउन' की घोषणा कर दी। तभी से देश की आबादी में कहाँ-कहाँ संक्रमण है, जानने के लिए तेजी से नतीजे देने वाले टेस्ट की जरूरत महसूस की जा रही थी।
तब तक कोई भी एंटीजन टेस्ट देश में उपलब्ध नहीं था। तेजी से नतीजे देने वाले एक अन्य किस्म के 'एंटीबाडी टेस्ट' किट जिसमें संक्रमण के फलस्वरूप शरीर में बनने वाले एंटीबॉडी की जांच की जाती है, चीन से हासिल करने की कोशिश की जा रही थी।
इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने 28 मार्च को 5 लाख किट खरीदने के प्रयास शुरू कर दिए थे। सबसे पहले ये किट चीन की दो कंपनियों से आयात किए गए जिनको नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वाइरोलॉजी ने अनुमोदित किया था। लेकिन ये भी समय पर नहीं आ पा रहे थे क्योंकि चीन सरकार ने निर्यात पर अंकुश लगाया हुआ था तो विदेश मंत्रालय ने चीन पर दबाव बनाया।
तीन निर्धारित तिथि बीत जाने के बाद अंततः 16 अप्रैल को चीनी किट भारत पहुंचे। समझा जा सकता है कि देश में किस तरह टेस्ट किटों की किल्लत रही। उस समय तक देश में दस लाख लोगों की आबादी के बीच कुल 203 लोगों के टेस्ट हो पा रहे थे।
उधर, इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च ने तय किया कि देश में 'हॉटस्पॉट' बन चुके 325 जिलों में बुखार, खांसी, सांस में तकलीफ वाले सभी व्यक्तिओं का टेस्ट किया जाए। यह भी नियम बनाया कि ‘एंटीबाडी टेस्ट’ लक्षण उभरने के सात दिन बाद ही किया जाए क्योंकि वायरस के हमले के जबाव में शरीर में एंटीबाडी का निर्माण पांच या सात दिन के बाद ही होता है।
लेकिन एंटीबाडी टेस्ट करने की यह शुरुआती मुहिम फेल हो गई क्योंकि आयातित चीनी किट अनियमित नतीजे दे रहे थे। जांच के बाद अंततः इनके इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई।
यह वह वक्त था जब भारत में ‘लॉक डाउन’ खोलने के बारे में विचार चल रहा था और यह तय करना जरूरी था कि कौन से इलाके ऐसे हों जहाँ प्रतिबन्ध जारी रखे जाएं और किस हालत के व्यक्ति के लिए कौन सा टेस्ट किए जाए।
‘एंटीबाडी टेस्ट’ का इस्तेमाल चीन और सिंगापुर में संक्रमित व्यक्तियों का पता लगाने के लिए किया गया था, वहीं जर्मनी, इटली, ब्रिटेन और अमेरिका इसका इस्तेमाल यह पता लगाने के लिए कर रहे थे कि जो व्यक्ति काम पर जा रहे हैं, वे प्रतिरक्षित हैं या नहीं।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी ने
स्वदेशी 'एंटीबॉडी किट' बनाया
इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च जहाँ कई विदेशी कंपनियों के 'एंटीबाडी टेस्ट किट' परख रही थी, वहीं भारतीय प्रयोगशालाएं स्वदेशी किट के विकास के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहीं थी।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी (पुणे) ने इसमें सबसे पहले कामयाबी हासिल की। इसने 'कोविड कवच' नाम की किट विकसित की और टेक्नोलॉजी भारत की एक प्रमुख दवा निर्माता कम्पनी 'जाइडस कैडिला' को हस्तांतरित की जिसने 22 मई तक पहला बैच तैयार कर दिखा दिया।
इस किट की विशेषता थी कि यह ढाई घंटे के एक परिचालन-चक्र में एक साथ 90 नमूनों को टेस्ट कर सकती थी। लेकिन बहुत से लोगों में इस टेस्ट के बारे में संदेह बना रहा क्योंकि इसकी क्षमता इस मायने में सीमित थी कि यह सही नतीजा उन्हीं व्यक्तियों का दे पाती थी जिनके संक्रमण को कम-से-कम दस दिन बीत चुके हों।
असल में यह टेस्ट रोगी की चिकित्सा सम्बन्धी जरूरतों के लिए नहीं था, बल्कि सिर्फ यह जानने के लिए उपयोगी था कि आबादी में कितने लोग संक्रमित हो चुके हैं। बाद में इस एंटीबॉडी टेस्ट का इस्तेमाल दिल्ली और मुंबई की 'धरावी' बस्ती में हुए 'सीरो सर्वे' में किया गया।
पर, मौजूदा महामारी के स्वरूप को देखते हुए टेस्ट की जरूरत मौजूदा जांच विधियों से पूरी नहीं होने वाली थी। इसलिए देश-विदेश के वैज्ञानिक नए-नए टेस्ट विकसित करने में लगे रहे। इनमें से कुछ उन नेतृत्वकारी प्रयासों का जिक्र किया जाना समीचीन होगा जिनमें भारत की अपनी हिस्सेदारी रही।
बनाया है ऐसा 'ऐप' जो मोबाइल फ़ोन पर ही
आपका कोरोना टेस्ट कर दे
इनमें सबसे दिलचस्प शोध उस टेस्ट के विकास को लेकर हुई है जिसमें कोई भी व्यक्ति अपने मोबाइल फ़ोन पर ही अपने संक्रमण की स्थिति जान सकेगा। इस अनुसन्धान में केंद्र सरकार के 'विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग' का समर्थन महत्वपूर्ण रहा। इसके समर्थन से 'अकुली लैब्स' ने पहले से इस्तेमाल हो रहे एक बायोमार्कर एंड्रॉइड टूल 'लाइफस' को वह नया रूप दिया जिससे कोई भी व्यक्ति स्वतः ही अपनी कोविड-19 की स्थिति जांच सके।
इसकी कार्यविधि बहुत सरल है। मोबाइल फ़ोन के पिछले वाले कैमरे पर पांच मिनट तक तर्जनी उंगली रखो तो यह नाड़ी और रक्त की मात्रा में अंतर के आधार पर 95 बायोमार्कर की जानकारी देने लगता है। इस काम में स्मार्ट फ़ोन का ही सेंसर और प्रोसेसर इस्तेमाल होता है। इस टेस्ट पर 'मेदांता मेडिसिटी हॉस्पिटल' में हुए अध्ययन में इसकी 'स्पेसिफिसिटी' 90 प्रतिशत और 'सेंसिटिविटी' 92 प्रतिशत निकल कर आई है जो काफी अच्छी है। इस टेक्नोलॉजी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी मान्यता दी है। उम्मीद की जा रही है सितम्बर के अंत तक यह मोबाइल ऐप सर्वसुलभ होगा।
बहुत कम समय में जांच के नतीजे देने में सक्षम कई नई जांच विधियों का विकास इजराइल और भारत के वैज्ञानिक मिलकर कर रहे हैं। इनमें भारत की 'कौंसिल ऑफ़ साइंटिफिक इंडस्ट्रियल रिसर्च' और 'डिफेन्स रिसर्च डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन' तथा इजराइल की ' डाइरेक्टोरेट ऑफ़ डिफेन्स रिसर्च एन्ड डेवलपमेंट' के वैज्ञानिक शामिल हैं।
इनमें एक जांच विधि के विकास में कृत्रिम बुद्धि का इस्तेमाल हुआ है जो बोलने या खांसने की ध्वनि तरंगों के विश्लेषण से संक्रमण का पता लगाकर दे सकेगी। एक अन्य दिलचस्प और चमत्कारी विधि है, श्वास में मौजूद हजारों जैव-रसायनों की बहुत उच्च आवृत्ति (टेरा हेर्त्ज़ फ्रीक्वेंसी) की तरंगों के इस्तेमाल से जाँच। इस विधि में जैव-रसायनों के इस्तेमाल की जगह 'फोटोनिक्स' और 'इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग' का सम्मिलित इस्तेमाल हुआ है।
एक अन्य प्रयास के अंतर्गत एक ऐसी विधि विकसित की जा रही है जिससे 'आरटी-पीसीआर' जांच के लिए जरूरी जेनेटिक सामग्री (डीएनए) की मात्रा घर पर ही बढ़ाई जा सकेगी। ये सभी टेस्ट इस किस्म के है जो एक मिनट से लेकर आधे घंटे में नतीजा दे सकते हैं। इन विविध जांच-विधियों को दिल्ली के लोकनायक जयप्रकाश, राम मनोहर लोहिया एवं सर गंगा राम हॉस्पिटल और लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज में परखा जा रहा है।
एक अन्य सफलता भारत में 'इंस्टीट्यूट ऑफ़ जीनोमिक एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी' को मिली है जिसने गर्भावस्था परीक्षण के लिए इस्तेमाल होने वाली 'पेपर स्ट्रिप' जैसी जांच विधि विकसित की है जो जीन-संपादन की आधुनिकतम 'क्रिस्पर' टेक्नोलॉजी के आधार पर काम करती है। लेकिन इसके इस्तेमाल के लिए किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं होगी।
इस तरह की किट का विकास अमेरिका में भी हो चुका है और उसके इस्तेमाल के लिए अनुमति भी मिल चुकी है। पर अभी इस टेक्नोलॉजी में काफी परिष्कार किया जाना है। भारत में इस तकनीक की अवधारणा सबसे पहले 'सिकल सेल मिशन' के तहत तैयार की गई थी। कोविड-19 के प्रकोप को देखते हुए वैज्ञानिकों ने सोचा--क्यों न इसका इस्तेमाल नए कोरोना वायरस के अनुवांशिक अनुक्रम को पहचानने के लिए किया जाए। इसी का नतीजा अत्याधुनिक जीन एडिटिंग तकनीक के आधार पर स्वदेशी टेस्टिंग किट 'फेलुदा' के रूप में सामने आया। इसमें पेपर-स्ट्रिप केमिस्ट्री का भी इस्तेमाल किया गया है जिससे संक्रमण की मौजूदगी का एक मिनिट में पता किया जा सकता है।
कुछ महामारी विशेषज्ञ मानते हैं कि मौजूदा कोरोनावायरस का प्रकोप लम्बे समय तक चलेगा। यह भी आशंका है कि यह चला जाएगा और फिर बार-बार लौटकर आएगा। इस परिप्रेक्ष्य में त्वरित और विश्वसनीय जांच-विधियों का महत्व नई दवाइयों और टीकों के विकास से भी अधिक महत्वपूर्ण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि नए शोध और नई जांच विधियों का लाभ आम लोगों तक जल्द पहुंचेगा।
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