Wednesday, September 16, 2020

कोविड काल में आपका बेहतरीन दोस्त है आपका अपना 'मास्क'

 

विनोद वार्ष्णेय

कोविड महामारी थामने के लिए जो प्रतिबन्ध लगाए गए थे, उन्हें हटाने का सिलसिला शुरू हो चुका है और लोग काम-धंधों पर निकल रहे हैं जो बर्बाद हो चुकी अर्थव्यवस्था को सम्हालने और लोगों को खुद अपनी आमदनी बहाल करने के लिए जरूरी है। इस क्रम में जहाँ शैक्षणिक संस्थाओं को भी खोलने पर विचार चल रहा है, वहीं चिंता की बात यह है कि आवागमन और आर्थिक गतिविधियों के शुरू होने के साथ ही भारत में कोविड-19 के मामले सबसे तेजी से बढ़ रहे हैं। विश्व में भारत की आबादी 17.78 प्रतिशत है लेकिन विगत दस दिनों में भारत में नए संक्रमित लोगों की संख्या वैश्विक संख्या का लगभग 32 प्रतिशत रही। 

 यही अनुपात चलता रहा तो अनुमान है कि 15-20 अक्टूबर तक विश्व  में कोरोना के सबसे अधिक एक्टिव केस भारत में होंगे। यह देश के लिए हर दृष्टि से बेहद चिंताजनक चीज होनी चाहिए। ऐसे समय में जब कोविड-19 का पूरी तरह से सुरक्षित टीका अभी कई महीने दूर हो; अस्पतालों में वेंटीलेटर वाले बिस्तरों की कमी हो; जिलों के अस्पतालों में ऑक्सीजन की उपलब्धता का संकट हो; छोटे शहरों से लोग बड़े शहरों में इलाज के लिए भाग रहे हों; वहां भी भर्ती होने के लिए लम्बा इन्तजार कर रहे हों और नितप्रति मौतों की संख्या बढ़ती जा रही हो; तो उन  सभी उपाय अपनाने को जिनसे कोविड-19 का  फैलाव रोकने में मदद मिल सकती हो, 'राष्ट्रीय कर्तव्य' माना जाना चाहिए।

कोविड-19 महामारी का  प्रसार थामने का सबसे सरल उपाय हर जोखिम वाली जगह पर मास्क पहनना है। महामारी थामने में मास्क की भूमिका को लेकर कई शोध-पत्र सामने आ चुके हैं। लेकिन न केवल भारत बल्कि दुनिया के तमाम देशों में काफी बड़ी आबादी शायद मानती है कि मास्क लगाने का कोई फायदा नहीं। ऐसा नहीं कि इन लोगों में गंवार और बेपढ़े लिखे लोग ही हों बल्कि अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग शामिल हैं। प्रत्यक्ष जानकारी है कि बहुत लोग सोचते हैं कि हम तो रोज काढ़ा पीते हैं, इसलिए हमें कोविड नहीं हो सकता। बहुत बड़ी संख्या में किशोर-किशोरियों में यह धारणा फ़ैली हुई है कि पहले तो उन्हें अच्छे प्रतिरक्षण की वजह से संक्रमण हो ही नहीं सकता और अगर होगा भी तो बिना किसी लक्षण वाला या हल्के लक्षण वाला होगा जो यूं ही ठीक हो जाएगा। उधर, कुछ लोग कहते हैं कि मास्क लगाने से उनका जी घुटता है और वे ज्यादा देर तक मास्क नहीं लगा सकते। इसलिए कोई अचरज नहीं कि पार्कों, बाजारों, सड़कों, कार्यालयों और दुकानों में बिना मास्क लगाए काफी लोग मिल जाते हैं और उससे भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होती है जिनका मास्क नाक और मुंह को ढंकने के स्थान पर उनकी ठोड़ी पर लटका रहता है।

आम आदमी की बात तो भूल जाएं, सरकारें और स्वास्थ्य संगठनों तक ने मास्क के मामले में काफी समय तक बहुत गलतफहमी बनाए रखी। शुरू में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा कि हर किसी को मास्क पहनने की जरूरत नहीं, केवल वे ही लोग मास्क पहनें जो संक्रमित हैं। बाद में इस संगठन ने अपना परामर्श बदला। सफाई दी गई कि शुरू में बहुत देशों में मास्क की किल्लत थी और डाक्टरों-नर्सों तक को ये सुलभ नहीं थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन की तर्ज पर ‘यू.एस. सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एन्ड प्रिवेंशन’ ने भी एडवाइजरी जारी की कि केवल बीमार लोग ही मास्क पहनें। अमेरिका के ज्योर्जिया राज्य के गवर्नर ब्रायन कैम्प ने तो हर किसी के लिए सार्वजनिक स्थलों पर मास्क पहनने की अनिवार्यता के खिलाफ राजधानी अटलांटा के मेयर केशा लांस बॉटम्स पर मुकदमा दर्ज कर दिया। खैर बाद में वह उन्होंने वापस ले लिया। भारत में इस मामले में सरकारी गैर-जिम्मेदारी का आलम यह कि यह लेख लिखते समय तक भी केंद्र सरकार के स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की वेबसाइट पर जनता के लिए प्रश्नोत्तर रूप में दी गई जानकारी के खंड में 'क्या मुझे मास्क पहनना चाहिए ?' के जबाव में लिखा गया है कि 'अगर आप बीमार नहीं हैं या किसी बीमार की देखभाल में नहीं लगे हैं तो मास्क पहनकर आप एक मास्क बर्बाद कर रहे हैं।'

उधर, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया, जो कोविड-19 से निपटने सम्बन्धी नीतियां तैयार करने में सरकार की कोर कमेटी के सदस्य हैं, मास्क न पहनने पर भारी जुर्माना लगाने की सलाह देते रहे हैं। दिल्ली सहित कई राज्यों में सार्वजनिक स्थलों पर मास्क न पहनने पर जुर्माना लगाया भी है। लाखों लोगों से जुर्माना वसूला भी गया है। 

मास्क के बारे में वैज्ञानिक अध्ययन क्या कहते हैं, यह जानना उचित होगा। वैज्ञानिक अध्ययनों का  निष्कर्ष यह है कि मास्क बेशक किसी को पूरी तरह संक्रमण से न बचा सके लेकिन वह संक्रमण की तीव्रता को बहुत हद तक कम करते हैं। संक्रामक रोगों की विशेषज्ञ डाक्टर और यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया (सैन फ्रांसिस्को) में मेडिसिन की प्रोफेसर डॉ. मोनिका गाँधी का शोध इस मामले में सबसे अधिक उद्धृत किया जाता है। उनका कहना है कि कोई भी मास्क परफेक्ट नहीं है, न ही वह इस बात की गारंटी है कि मास्क लगाएंगे तो आप कोरोना वायरस से पूरी तरह बचे रहेंगे, लेकिन यह तय है कि इसकी वजह से आपके शरीर में वायरस कम संख्या में पहुंचेंगे और आप अगर संक्रमित हो भी जाएंगे तो उसका असर हल्का रहेगा, यहाँ तक कि शायद आपको कोई भी लक्षण न उभरें और पता भी न चले कि आप कभी संक्रमित भी हुए थे।

वैज्ञानिक व्याख्या यह है कि जब कोई संक्रमित व्यक्ति बोलता, छींकता या खांसता है, तो वह आसपास की हवा में वायरस भी छोड़ रहा होता है और जब पास में मौजूद कोई व्यक्ति उस हवा में सांस लेता है तो कुछ वायरसों का उसकी नाक में पहुंच जाना स्वाभाविक है। वायरस के नाक में पहुंचते ही शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली अपना काम शुरू कर देती है यानी एंटीबॉडी बनाना शुरू कर देती है। अगर वायरस की संख्या ज्यादा हो तो एंटीबॉडी उन सभी वायरसों को ख़त्म नहीं कर पातीं और उनमें से कुछ शरीर की कोशिकाओं में घुस जाते हैं और वहां की जेनेटिक प्रणाली पर कब्ज़ा कर तेजी से अपनी संख्या बढ़ाने लगते हैं क्योंकि मानव की अपनी कोशिकाएं खुद वायरस बनाने की फैक्ट्री में तब्दील हो चुकी होती हैं। अगर नए बनने वाले वायरसों की संख्या बहुत हो जाए तो जीवन के लिए गंभीर चुनौती पैदा हो जाती है।

इसी साल जुलाई में एक शोध प्रकाशित हुआ जिसमें हैम्सटर चूहे पर प्रयोग से यह प्रमाणित हुआ कि जिन चूहों में सार्स-कोव-2 वायरस की अधिक संख्या डाली गई, उनमें बीमारी की प्रचंडता अधिक थी और जिनमें कम, उनमें बीमारी का असर हल्का रहा। महामारी विशेषज्ञ मानते हैं कि कोरोना वायरस ज्यादातर हवा में बह रही सूक्ष्म छीटों के जरिए; और कुछ हद तक ‘एरोसोल’ से भी फैलता है। आम तौर पर खांसने या छींकने से जो सूक्ष्म छींटें निकलते है, वे अपेक्षाकृत बड़े कण होते हैं जो कुछ समय बाद जमीन पर गिर जाते हैं लेकिन जो अत्यंत सूक्ष्म तरल कण होते हैं वे हवा में ही घुलमिल कर तैरते रहते हैं जिसे ‘एरोसोल’ कहा जाता है। बोलने या श्वसन क्रिया से भी वायरस आसपास की हवा में आ जाते हैं और कई मिनट तक बने रहते हैं। 

इसलिए यह अच्छी रणनीति है कि इस महामारी के अनिश्चित समय में जब यह जानना मुश्किल है कि कौन वायरस लेकर घूम रहा है और आपको बाजार, अदालत, स्कूल, कॉलेज, दुकान, ऑफिस, फैक्टरी आदि कार्य स्थलों पर जाना है, तो इस बात के सभी उपाय किए जाएं कि जिनसे शरीर में कम से कम संख्या में वायरस प्रवेश कर पाएं। 

अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि कपड़े के बने मास्क या सामान्य सर्जिकल मास्क वायरसों को 80 प्रतिशत तक नाक या मुंह में जाने से रोक लेते हैं। अनेक देशों से एकत्र किए आंकड़ों से स्पष्ट हुआ है कि जहाँ-जहाँ मास्क इस्तेमाल किए गए, वहां-वहां बिना लक्षण वाले संक्रमित व्यक्तियों की संख्या अधिक पाई गई। अनेक देशों के इस तरह के आकड़ों का सार यह है कि जहां सभी लोग मास्क पहनते थे, वहां संक्रमण कम फैला और मृत्यु दर भी कम रही।  

 मास्क की गुणवत्ता को लेकर बहुत भ्रम फैलाए गए हैं कि एन-95 किस्म के या वाल्व वाले मास्क ही अच्छे होते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि साधारण सर्जिकल मास्क अथवा (कम-से-कम दो या) तीन परतों वाले कपड़े के मास्क की वायरस रोकने की क्षमता लगभग उतनी ही होती है जितनी कि एन-95 किस्म के या वाल्व वाले महंगे मास्कों की। एक बार पहनने के बाद मास्क को धोना अनिवार्य होता है और  कपड़े के मास्क आसानी से धोए जा सकते हैं। 

 (This article was first published in the 16.09.2020 issue of Hindi newspaper 'Vaigyanik Drishtikon')

 

3 comments:

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